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________________ प्रथम खण्ड/द्वितीय पुस्तक १३७ भी वह उतना ही है यह भाव से एकत्व है। स्कंध में परमाणुओं की हानि-वृद्धि की तरह सत् के गुणों में कभी हानि-वृद्धि नहीं होती। ४८१ से ४८५ तक ७५३ प्रश्न ५१६ - सत् के अनेक होने में क्या युक्ति है ? उत्तर - व्यतिरेक के बिना अन्वय पक्ष नहीं रह सकता अर्थात् अवयवों के अभाव में अवयवी का भी अभाव ठहरता है। अतः अवयवों की अपेक्षा से सत् अनेक भी है। ४९४ प्रश्न ११७ - द्रव्य से सत् अनेक कैसे हैं ? उत्तर - गुण अपने लक्षण से है,पर्याय अपने लक्षण से है। प्रत्येक अवयव अपने-अपने लक्षण से ( प्रदेश से नहीं) भिन्न-भिन्न है। अतः सत् द्रव्य से अनेक है। ४९५,७५२ प्रश्न ११८ - क्षेत्र से सत् अनेक कैसे हैं ? उत्तर - प्रत्येक देशांश का सत भिन्न-भिन्न है इस अपेक्षा क्षेत्र से अनेक भी है। प्रतीति के अनुसार अनेक है। सर्वथा नहीं। ४९६, ७५२ प्रश्न ११९ - काल से सत् अनेक कैसे हैं ? उत्तर - पर्याय दृष्टि से प्रत्येक काल ( पर्याय) का सत् भिन्न-भिन्न है इस प्रकार सत् काल की अपेक्षा अनेक ४९७, ७५२ प्रश्न १२० - भाव की अपेक्षा सत् अनेक कैसे हैं? उत्तर - प्रत्येक भाव (गण) अपने-अपने लक्षण से ( प्रदेश से नहीं) भिन्न-भिन्न है इस प्रकार सत भाव की अपेक्षा अनेक है। ४९८,७५२ प्रश्न १२१ - एक अनेक पर उभय नय लगाओ? उत्तर - जो सत गुण पर्यायादि अंशों से विभाजित अनेक है, वही सत् अनंशी होने से अभेद्य एक है, यह उभय नय या प्रमाण पक्ष है। प्रश्न १२२ - एक अनेक पर अनुभय नय लगाओ? उत्तर - अखण्ड होने से जिसमें द्रव्य, गुण, पर्याय की कल्पना ही नहीं है। जो किसी विकल्प से भी प्रगट नहीं किया जा सकता है। यह शुद्ध द्रव्यार्थिक नय या अनभय पक्ष है। ७५४ ___ निर्पक्ष, सापेक्ष विचार (५) प्रश्न १२३ -निर्पेक्ष-सापेक्ष से क्या समझते हो? उत्तर - अस्ति-नास्ति, तत्-अतत, नित्य-अनित्य, एक-अनेक, चारों युगल भिन्न-भिन्न सर्वथा जुदा माना जावें तो मिथ्या हैं और चारों यदि परस्पर के मैत्रीभाव से सम्मिलित मानकर मख्य गौण की विधि से प्रयोग किये जायें तो सम्यक् हैं। प्रश्न १२४ - परस्पर सापेक्षता का या मुख्य गौण का रहस्य क्या है ? उत्तर - परस्पर सापेक्षता का यह रहस्य है कि आप वस्तु को जिस धर्म से देखना चाहें सारी की सारीवस्त आपको उसी रूप दृष्टिगत होगी यह नहीं कि उसका कुछ हिस्सा तो आपको एक धर्म रूप नजर आये और दूसरा हिस्सा दूसरे रूप जैसे नित्यानित्यात्मक वस्तु में नित्य-अनित्य दोनों धर्म इस प्रकार परस्पर सापेक्ष हैं कि त्रिकाली स्वभाव की दृष्टि से वस्तु देखों तो सारी स्वभाव रूप और परिणाम की दृष्टि से वस्तु देखों तो सारी परिणाम रूप नजर आयेगी। अब तुम अपने को चाहे जिस रूप देख लो। ज्ञानी अपने को सदैव नित्य अवस्थित स्वभाव की दृष्टि से देखता है। अज्ञानी जगत् अपने को सदा परिणाम दृष्टि से देखता है। क्योंकि उसमें दोनों धर्म रहते हैं इसलिये जिस रूप देखना चाहो उसी रूप दीखने लगती है। इसी को मुख्य गौण कहते हैं। निरपेक्ष माननेवालों को वस्तु सर्वथा एक रूप नजर आयेगी। यही बात अन्य चार युगलों में भी है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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