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________________ ग्रस्थराज श्री पञ्चाध्यायी प्रश्न १०८ - क्रिया फल आदि किस प्रकार नहीं बनेगा ? उत्तर- आप तो वस्तु को कटस्थ नित्य मानते हैं। क्रिया, फल, कार्य आदि तो सब पर्याय में होते हैं। पर्याय की आप नास्ति मानते हैं, अतः ये भी नहीं बनते। प्रश्न १०१ - तत्त्व और क्रिया दोनों कैसे नहीं बनते? उत्तर- मोक्ष का साधन जो सम्यग्दर्शनादि शद्ध भाव हैं वे परिणाम हैं और उनका फल जो मोक्ष है वह भी निराकुल सुख रूप परिणाम है। ये दोनों साधन और साध्य रूप भाव है। परिणाम हैं। परिणाम आपमानते नहीं हैं। इस प्रकार तो क्रिया का अभाव हुआ और इन दोनों भावों का कर्ता-साधक आत्मद्रव्य है वह विशेष के बिना सामान्य नरहने से नहीं बनता है। इस प्रकार तत्त्व का भी अभाव ठहरता है अर्थात् कर्ता कर्म क्या कोई भी कारक नहीं बनता है। प्रश्न ११० - सर्वथा अनित्य पक्ष में क्या हानि है ? उत्तर- (१) सत् को सर्वथा अनित्य माननेवालों के यहाँ सत् तो पहले ही नाश हो जायेगा। फिर प्रमाण और प्रमाण का फल नहीं बनेगा। (२)जिस समय वे सत् को सन्तिम द्धिकागे सिमाग गोगटइतिज्ञा बोलेंगे कि"जो सत् है वह अनित्य है" तो यह कहना तो स्वयं उनकी पकड़ का कारण हो जायेगा क्योंकि सत् तो है ही नहीं फिर 'जो सत् है वह यह शब्द कैसा ४३० (३) सत् को नहीं मानने वाले उसका अभाव कैसे सिद्ध करेंगे। ४३२ (४) सत् को नित्य सिद्ध करने में जो प्रत्यभिज्ञान प्रमाण है वह क्षणिक एकान्त का बाधक है।४३२ (५) सामान्य (अन्वय) के अभाव में विशेष (भ्यतिरेक) तो गधे के सींगवत् है। वस्तु के अभाव में परिणाम किसका। ___ "एक-अनेक युगल' (४) प्रश्न १११ - सत् एकहै इसमें क्या युक्ति है ? उत्तर - द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से गुण पर्या य या उत्पाद-व्यय धौव्य रूप अंशों का अभिन्न प्रदेशी होने से सत् एक है अर्थात् क्योंकि वह निरंश देश है इसलिये अखण्ड सामान्य की अपेक्षा से सत् एक ४३६,४३७ प्रश्न ११२ - द्रव्य से सत् एक कैसे हैं ? उत्तर - क्योंकि वह गुण पर्यायों का एक तन्मय पिण्ड है इसलिये एक है। ऐसा नहीं है कि उसका कुछ भाग गुण रूप हो और कुछ भाग पर्याय रूप हो अर्थात् गोरस के समान, अंध स्वर्णपाषाण के समान, छाया आदर्श के समान अनेकहेतुक एक नहीं है किन्तु स्वतःसिद्ध एक है। ४३८ से ४४८ तक, ७५३ प्रश्न ११३ - क्षेत्र से सत् एक कैसे है ? । उत्तर- जिस समय जिस द्रव्य के एक देश में जितना, जो, जैसे सत् स्थित है, उसी समय उसी द्रव्य के सब देशों में भी उतना, वही वैसा ही समुदित स्थित है। इस अखण्ड क्षेत्र में दीप के प्रकाशों की तरह कभी हानिवृद्धि नहीं होती। ४५३, ७५३ प्रश्न ११४ - काल से सत् एक कैसे है ? उत्तर - एक समय में रहने वाला जो, जितना और जिस प्रकार का सम्पूर्ण सत् है - वही, उतना और उसी प्रकार का सम्पूर्ण सत् समुदित सब समयों में भी है। काल के अनुसार शरीर की हानि-वृद्धि की तरह सत् में काल की अपेक्षा से भी हानि-वृद्धि नहीं होती है। वह सदा अखण्ड है। ४७३, ७५३ प्रश्न ११५ - भाव से सत् एक कैसे हैं ? उत्तर - सत् सब गुणों का तादात्म्य एक पिण्ड है। गणों के अतिरिक्त और उसमें कछ है ही नहीं। किसी एक गुण की अपेक्षा जितना सत् है प्रत्येक गुण की अपेक्षा भी वह उतना ही है तथा समस्त गुणों की अपेक्षा
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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