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________________ प्रथम खण्ड/द्वितीय पुस्तक १३१ वशेष का२)वस्तु पर से नहीं मानास्ति (४) युगपत देखना देखता है वह बेचारा सा है।(३) एक अनेक दोनों को कम से देखना हो तो कहिये 'म्व से है पर से नहीं है। यह अस्ति-नास्ति,(४) एक अनेक दोनों लप एक साथ देखना हो तो कहेंगे 'वस्त अवक्तव्य है। शेष तीन भंग इनके योग से जान लेना IC) अब तत्अतत् पर लगाते है। जब आपको यह देखना हो कि वस्तु वही की वही है तो तत् धर्म की मुख्यता होगी और इसका नाम होगा'स्व'अब कहिये।(१)वस्तु स्व (तत धर्म से)है। इसमें सारी वस्तु नही की वही नजर आयेगी।(२) वस्तु पर से नहीं है। अतत् धर्म ( नई-नई वस्तु) बिल्कुल गौण हो जायेगा। अगर आपको अतत् धर्म से देखना है तो अतत् धर्म स्व हो जायेगा तो कहिये (१) वस्तु स्व (अतत् ) रूप से है। इसमें समय-समय की वस्तु नई-नई नजर आयेगी। (२) वस्तु पर नहीं से है। इसमें वस्तु वही ही वही है। ये धर्म बिल्कुल गौण हो जायेगा। (३) क्रम से वही की बही और नई-नई देखनी है तो कहिये अस्ति-नास्ति ( ४ ) एक समय में दोनों रूप देखनी है तो अवक्तव्य। शेष तीन इनके योग से जान लेना। ज्ञानियों को तत् धर्म की मुख्यता रहती है। अज्ञानी जगत् तो देखता ही अतत् धर्म से है। तत् धर्म का उसे ज्ञान ही नहीं। D] अब सामान्य विशेष पर लगाते हैं। आपको सामान्य रूप से वस्तु देखनी हो तो सामान्य धर्म स्व होगा।(१)कहिये वस्तु स्व से है। इसमें सारी वस्तु सत् रूपही नजर आयेगी फिर कहिये (२) वस्तु पर से नहीं है। विशेष रूप से बिल्कुल गौण हो जायेगी। जीव रूप नहीं दिखेगी। यदि आप विशेष रूप से देखना चाहते हों तो विशेष को स्व बना लीजिये। कहिये (१)वस्तु स्व से है तो आपको सारी वस्तु विशेष रूप नजर आयेगी। जीव रूप ही दृष्टिगत होगी।(२) वस्तु पर से नहीं है सामान्य पक्ष उसी समय बिल्कुल नजर न आयेगा।सत् रूप से नहीं दिखेगी। (३)दोनों धर्मों को क्रम से देखना हो तो अस्ति-नास्ति (४) युगपत देखना हो तो अवक्तव्य। शेष तीन इनके योग से।ज्ञानी सदा विशेष को गौण करके सामान्य से देखते हैं। अज्ञानी सदा विशेष को देखता है वह बेचारा सामान्य को समझता ही नहीं। विशेष की दृष्टि हल्की पड़े तो सामान्य पकड़ में आये। ऐसा ग्रंथकार का पेट उपर्युक्त चार श्लोकों में निहित (छुपा हुआ) है। अनेकान्त के जानने का लाभ अब यह देखना है कि यह मदारी का तमाशा है या कुछ इसमें सार बात भी है। भाई इसको कहते हैं। स्थाबादअनेकान्त' यही तो हमारे सिद्धान्त की भित्ती है। हमारे सरताज श्री अमृतचन्द्र सूरी ने श्री पुरुषार्थसिद्धि में इसको जीवभूत या बीजभूत कहा है। श्री समयसार के परिशिष्ट में इसके न जानने वाले को सीधा पशु शब्द से सम्बोधित किया है। यद्यपि आध्यात्मिक सन्त ऐसा कड़ा शब्द नहीं कहते पर अधिक करुणा बुद्धि से शिष्य को यह बतलाने के लिये कि यदि यह न समझा तो कुछ नहीं समझा - ऐसा कहा है। श्री प्रवचनसार तथा श्री समयसार के दूसरे कलश में इसको मंगलाचरण में स्मरण किया है। इसका कारण क्या है ? इसका कारण हम आपको इस ग्रंथ के प्रारम्भ में श्लोक नं. २६१-२६२-२६३ में बतला चुके हैं कि वस्तु उपर्युक्त चार युगलों से गुंधी हुई है और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव हर प्रकार से गुंथी हुई है। यह तो पुस्तक ही "वस्तु की अनेकान्तात्मक स्थिति" के नाम से आपके हाथ में है। वह चीज जैसी है वैसा ही तो उसका ज्ञान होना चाहिये अन्यथा मिथ्या हो जायेगा। अब देखिये इससे लाभ क्या है।(१) वस्तु में नित्य धर्म है। जिसके कारण वस्तु अवस्थित है। इस धर्म के जानने से पता चलता है कि द्रव्यरूप से तो मोक्ष वस्तु में वर्तमान में विद्यमान ही है तो फिर उसका आश्रय करके कैसे नहीं प्रकट किया जा सकता। (B) अनित्य धर्म से पता चलता है कि पर्याय में मिथ्यात्व है, राग है, दुःख है। साथ ही यह पता चल जाता है कि परिणमन स्वभाव द्वारा बदल कर यह सम्यक्त्व, वीतसमता और सुख रूप परिवर्तित किया जा सकता है तो भव्य जीव नित्य स्वभाव का आश्रय करके पर्याय के दुःख को सुख में बदल लेता है। मानों वस्तु ऐसी ख्याल में न आवे। केवल एकान्त नित्य ख्याल में आवे तो अपने को अभी सर्वथा मुक्त मानकर निश्चयाभासी हो जायेगा और पुरुषार्थ को लोप ही वस्तु ख्याल में आई तो मूल तस्व ही जाता रहा। सारा खेल ही बिगड़ गया। पुरुषार्थ करनेवाला का ही न रहा। इस प्रकार वस्तु अनेकान्तात्मक है। यह प्रत्यक्ष अनुभव में आता है।(२) एक जगह दुःख होने से सम्पूर्ण में दुःख होता है इससे उसकी अभेदता, अखण्डता, एकता ख्याल में आती है। (B) चौथे गुणस्थान में क्षायिक सम्यक्त्व हो जाता है। चारित्र में पुरुषार्थ की दुर्बलता के कारण कृष्ण लेश्या चलती है। इससे वस्तु की भेदता, अनेकता खण्डता का परिज्ञान प्रत्यक्ष होता है। (३) जो यहाँ पुण्य करता है वही स्वर्ग में सुख भोगता है। जो यहाँ पाप करता है वही नरक में
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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