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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
आपको त्रिकाली स्वभाव को कहना है तो त्रिकाली स्वभाव का नाम स्व हो जायेगा और परिणाम का नाम पर हो जायेगा तो आप इस प्रकार कहेंगे - (१) वस्तु स्व से है अर्थात् त्रिकाली स्वभाव की अपेक्षा से है। इस दृष्टिवाले को सबकी सब वस्तु एक स्वभाव रूप दृष्टिगत होगी। जीव रूप दिखेगी - मनुष्य देव रूप नहीं दिखेगी। वह धर्म बिल्कुल गौण हो जायेगा। यह पहला अस्ति नय है। अस्ति अर्थात् मुख्य- जिसके कहने की आपने मुख्यता की है।(२)उसी समय वस्तु पर रूप से नहीं है अर्थात् परिणाम की अपेक्षा से नहीं है। इस दृष्टिवाले को वस्तु पर्याय रूप - मनुष्य रूप नहीं दीख रही है। वह धर्म बिल्कुल गौण है, गौण बाले को नास्ति कहते हैं। यह दूसरा नास्ति नय है। यह ज्ञानियों के देखने की रीति है। अब अज्ञानी कैसे देखते हैं। यह बताते हैं उनको द्रव्य दृष्टि का तो ज्ञान ही नहीं। उनकी केवल पर्याय दृष्टि ही रहती है। अब आप भी यदि इस दृष्टि से देखना चाहते हों तो पर्याय को मुख्य करिये - स्वभाव को गौण करिये। पर्याय स्व हो जायेगी। स्वभाव पर हो जायेगा। अब कहिये-(१)वस्तु स्व से है- अस्ति, इसको सारा जीव मनुष्य रूप दृष्टिगत होगा। (२) वस्तु पर से नहीं है। स्वभाव अत्यन्त गौण है। इस सप्तभंगी का प्रयोग तो ज्ञानी ही जानते हैं। ऊपर अज्ञानी का तो दृष्टान्त रूप से लिखा है। अज्ञानी को तो एकत्त्व दृष्टि है। सप्तभंगी का प्रयोग तो अनेकान्त द्रष्टिवाले ज्ञानी प्रयोजन सिद्धि के लिये करते हैं। (३) अब दोनों धर्मों को क्रमश: ज्ञान कराने के लिये कहते हैं कि वस्तु स्व ( त्रिकाली स्वभाव से है ) और पर ( परिणाम ) से नहीं है या वस्तु स्व ( परिणाम ) से है और पर (त्रिकाली स्वभाव से नहीं है ) यह अलि-आस्ति सिता भंग है इसका लाभ यह है कि वस्तु के दोनों पड़खों का क्रमशः ज्ञान हो जाता है।(४)अब वे दोनों धर्म वस्तु में तो एक समय में युगपत इकट्ठे हैं और आप क्रम से कह रहे हैं। अब आपकी इच्छा हुई कि मैं एक साथ ही कहूँ तो उस भाव को प्रगट करने के लिए अवक्तव्य शब्द नियुक्त किया गया। अवक्ष्य कहने वाले तथा समझने वाले का इस शब्द से यह भाव स्पष्ट प्रगट हो जाता है कि वह दोनों भावों को युगपत कह रहा है। यह चौथा अवक्तव्य भंग है। एक बात यहाँ खास समझने की है कि यह अवक्तव्य नय और है और दृष्टि परिज्ञान में जो अनुभय दृष्टि बतलाई थी वह और चीज है। यहाँ वस्तु के दोनों धर्मों की भिन्न-भिन्न स्वीकारता है। कहने वाला दोनों को एक समय में कहना चाहता है पर शब्द नहीं है इसलिये अवक्तव्य नय नाम रखा। वहाँ सामान्य विशेष का भेद ही नहीं है। उसका लक्षण ऐसा है कि न सामान्य है न विशेष है। यह भेद ही जहाँ नहीं है। उसकी दृष्टि में वस्त में भेद कहना ही भूल है। जो है सो है। उसका विषय अनुभव गम्य है। शब्द में अनिर्वचनीय है। अवक्तव्य है। पर वह अखण्ड वस्तु की द्योतक है। नयभंगी में अवक्तव्य नय वस्तु के एक अंश की कहने वाली है। यह भेद सहित दोनों धर्मों को युगपत स्वीकार करती है। वह दोनों धर्मों को ही वस्तु में स्वीकार नहीं करती। इतना अन्तर है वह दृष्टि श्री समयसार गा. २७२ से निकाली है। वहाँ उसका लक्षण व्यवहार प्रतिषेध लिखा है। वह आध्यात्मिक वस्तु है। यह दृष्टि श्री पंचास्तिकाय गाथा १४ तथा श्री प्रवचनसार गा.११५ से निकाली है। इसका लक्षण इन दोनों में ऐसा लिखा है।"स्यादस्त्यवक्तव्यपेव स्वरूपपररूपयोगपद्याभ्यां "। यह आगम की वस्तु है। वह निर्विकल्प है। यह सविकल्प है। वह अखण्ड का द्योतक है यह अंशको द्योतक है। वह नयातीत अवस्था है यह नयदष्टि है। आगम में कहाँ अनुभय शब्द या अवक्तव्य शब्द या अनिर्वचनीय शब्द किसके लिये आया है। यह गुरुगम से ध्यान रखने की बात है। भाव आपके हृदय में झलकना चाहिये फिर आप मार नहीं खायेंगे। भावभासे बिना तो आगम का निरूपण मोक्षशास्त्र में कहा है कि सत् ( सच्चे) और असत् (झुठे)की विशेषता बिना पागल के समान इच्छानुसार बकता है। यह आपकी चौथी नय पूरी हुई। शेष तीन तो इनके संयोग रूप हैं और उनमें कोई खास बात नहीं है। ___(B) अब एक अनेक युगल पर लगाते हैं। एक या अनेक जिसको आप कहना चाहते हैं या जिस रूप वस्तु को देखना चाहते हों उसका नाम होगा स्व और दूसरे का पर। मानों आप एक रूप से कहना चाहते हैं तो (१)वस्तु स्व (एक रूप) से है। इसमें सारी वस्तु अखण्ड नजर आयेगी(२) और उस समय वस्तु पर रूप से (अनेक रूप से) नहीं है। यह धर्म बिल्कुल गौण हो जायेगा। यदि अनेक रूप देखने की इच्छा है। तो कहिये। (१) वस्तु स्व( अनेक) रूप से है। इस दृष्टिवाले को द्रव्य अपने लक्षण से भिन्न नजर आयेगा, गुण अपने लक्षण से भिन्न नजर आयेगा, पर्याय अपने लक्षण से भिन्न नजर आयेगा और उस समय वही वस्तु (२)पर (एकत्व) से नहीं है। वस्तु का अखण्डपना लोप हो जायेगा। डूब जायेगा। ज्ञानी की एकत्व दृष्टि की मुख्यता रहती है। अज्ञानी जगत की सर्वथा अनेकत्व दृष्टि