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प्रथम खण्ड / द्वितीय पुस्तक
संस्कृत में कहते हैं 'न इति' संधि करके कहते हैं 'नेति'1'नेति' का यह अर्थ नहीं कि कुछ नहीं किन्तु यह अर्थ है कि भेदरूप कुछ नहीं किन्तु अभेद । शब्द रूप कुछ नहीं किन्तु अनुभव गम्य- इसलिये इसका नाम रखा 'न इति दृष्टि' या 'नेति दृष्टि '1 (ङ) जैनधर्म में भेद को अशुद्ध भी कहते हैं और अभेद को शुद्ध कहते हैं। इसलिये इसका नाम है शुद्ध दृष्टि । (च) जैनधर्म में अखंड को द्रव्य कहते हैं और आप श्लोक नं. २६ में पढ़ चुके हैं कि अखण्ड के एक अंश को पर्याय कहते हैं इसलिये इसका नाम है द्रव्य दृष्टि । द्रव्य शब्द का अर्थ अखण्ड दृष्टि ।
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(छ) कभी इसको विशेष स्पष्ट करने के लिये शुद्ध और द्रव्य दोनों शब्द इकट्ठे मिलाकर बोल देते हैं तब इसका नाम होता है शुद्ध द्रव्य दृष्टि या शुद्ध द्रव्यार्थिक दृष्टि । शुद्ध दृष्टि भी इसी का नाम है, द्रव्य दृष्टि भी इसी का नाम है, शुद्ध द्रव्य दृष्टि भी इसी का नाम है। (ज) भेद को जैनधर्म में विकल्प भी कहते हैं। विकल्प नाम राग का भी है, भेद का भी है। यहाँ भेद अर्थ इष्ट है। इसमें भेद नहीं है इसलिये इसका नाम है निर्विकल्प दृष्टि या विकल्पातीत दृष्टि । (झ) अभेद को सामान्य भी कहते हैं। इसलिये इसका नाम हुआ सामान्य * दृष्टि । इस दृष्टि का वर्णन (१३) सत् में सामान्य विशेष का भेद नहीं है इसका वर्णन तो नं. ७५८ में किया है । ( १४ ) सत् में नित्य - अनित्य का भेद नहीं है इसका वर्णन ७६२ में किया है । (१५) सत् में तत्-अतत् का भेद नहीं है इसका वर्णन नं. ७६६ में किया है। (१६) सत् में एक अनेक का भेद नहीं है इसका वर्णन नं. ७५४ में किया है। इस प्रकार जितना ग्रन्थ का भाग आप के हाथ में है अर्थात् २३१ से ५०२ तक। इसमें उपर्युक्त १६ दृष्टियों से काम लिया है। सारे का निरूपण इन्हीं १६ दृष्टियों के आधार पर है जो मूल ग्रंथ में श्लोक नं. ७५२ से ७६७ तक १६ श्लोकों द्वारा कहा गया है। हमने चारचार श्लोक प्रत्येक अवान्तर अधिकार के अन्त में परिशिष्ट के रूप में जोड़ दिये हैं ताकि आप जहाँ यह विषय पढ़ें वहीं आपको दृष्टि परिज्ञान भी हो जाय। हमारी हार्दिक भावना यही है कि आपका भला हो आप ज्ञानी बनें। यह हम जानते हैं कि कोई किसी को ज्ञानी नहीं बना सकता। न हमारे भाव में ऐसी एकत्वबुद्धि है किन्तु आशीर्वाद रूप से ऐसा बोलने की व्यवहार पद्धति है। जिस के उपादान में समझने की योग्यता होगी, उन्हें ग्रन्थ निमित्त रूप में पड़ जायेगा । ऐसी अलौकिक किन्तु सुन्दर वस्तु स्थिति समझाने वाले सद्गुरुदेव की जय । ओं शान्ति ।
सप्तभंगी विज्ञान
यह लेख इस ग्रन्थ के श्लोक नं. २८७, २०८, ३३५, ४९९ का मर्म खोलने के लिए लिखा गया है। प्रमाण के लिये देखिये श्री पंचास्तिकाय गाथा १४ तथा श्री प्रवचनसार गा. ११५ । एक प्रमाण सप्तभङ्गी होती है एक नय सप्तभंगी होती है। जो दो द्रव्यों पर लगाई जाती है वह प्रमाण सप्तभंगी कहलाती है सो श्री पंचास्तिकाय की उपर्युक्त गाथा में तो प्रमाण सप्तभंगी का कथन है' जैसे एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में अभाव' वह इस प्रकार चलती है। दूसरी नय सप्तभंगी है वह सामान्य विशेष पर चलती है जो श्री प्रवचनसार की उपर्युक्त गाथा में है। यह इस प्रकार चलती है कि सामान्य का विशेष में अभाव, विशेष का सामान्य में अभाव । चलाने का तरीका दोनों का एक प्रकार का है। श्री पंचास्तिकाय में तो छः द्रव्यों का विषय था, इसलिये वहाँ छः द्रव्यों पर लगने वाली द्रव्य सप्तभंगी की आवश्यकता पड़ी और श्री प्रवचनसार में एक ही द्रव्य के सामान्य विशेष का विषय चल रहा था, इसलिये वहाँ नय सप्तभंगी बतलाई। इस ग्रंथ में सब विषय नय सप्तभंगी का है क्योंकि यह सम्पूर्ण ग्रंथ एक ही द्रव्य पर लिखा गया है। दूसरे द्रव्य को यह स्पर्श भी नहीं करता। वह सप्तभंगी यहाँ सामान्य विशेष के चार युगलों पर लगेगी। सो सबसे पहले एक नित्य- अनित्य युगल पर लगाकर दिखलाते हैं। इस पर आपको सरलता से समझ में आ जायेगी । देखिये द्रव्य में दो स्वभाव हैं एक तो यह कि वह अपने स्वभाव को त्रिकाल एक रूप रखता है। दूसरा यह कि वह हर समय परिणमन करके नए-नए परिणाम उत्पन्न करता है । स्वभाव त्रिकाल स्थायी है। परिणाम एक समय स्थाई है। अतः दोनों भिन्न हैं। अब जिसको आपको कहना हो, वह मुख्य हो जाता है। मुख्य को 'स्व' कहते हैं। दूसरा धर्म गौण हो जाता है। गौण को ' पर ' कहते हैं। यह ध्यान रहे कि स्व या पर किसी खास का नाम नहीं है। जिसके विषय में कहना हो, वही स्व कहलाता है। अब
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मोक्षमार्ग में केवल यही दृष्टि काम आती है ऐसा श्री कुन्दकुन्द आचार्यदेव ने श्री समयसार की गाथा २७२ की दूसरी पंक्ति में स्पष्ट लिखा है। ऊपर की पंक्ति में इस नय का स्वरूप और नीचे की में इसका फल |