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ग्रन्धराज श्री पञ्चाध्यायी
सत् बना ही नहीं तो आपने झट कहा कि 'सत एक है' यह एक नामा व्यवहार नय है। इसका वर्णन नं.७५३ में है। (८)फिर आपकी दृष्टि अनेक धर्मों पर गई, आपने सोचा, अरे द्रव्य का लक्षण भिन्न है, गुण का लक्षण भिन्न है, पर्याय का लक्षण भिन्न है, इन सब अवयवों को लिये हुये ही तो सत् है तो आपने कहा 'सत् अनेक है' यह अनेक नामा व्यवहार नय है इसका वर्णन नं.७५२ में है। इस प्रकार इस ग्रन्थ में आठ प्रकार की व्यवहार नयों का परिज्ञान कराया है (c) अब आपको प्रमाण दृष्टि का परिज्ञान कराते हैं। जब आपकी दृष्टि सत् के एक-एक धर्म पर भिन्नभिन्न रूप से न पहुँच कर इकट्टी दोनों धर्मों को पकड़ती है तो आपको सत् दोनों रूप दृष्टिगत होता है। दोनों को संस्कत में उभय कहते हैं। (१) अच्छा बतलाइये कि सत् सामान्य है या विशेष। तो आप कहेंगे जो सामान्य सत् रूप है वही तो विशेष जीव रूप है दूसरा थोड़ा ही है। सामान्य विशेष यद्यपि दोनों विरोधी धर्म हैं, पर प्रत्यक्ष वस्तु में दोनों धर्म दीखते हैं। आपस में प्रेमपूर्वक रहते हैं कहो, या परस्पर की सापेक्षता से कहो, या मित्रता से कहो, या अविरोधपूर्वक कहो। इसलिये जो दृष्टि परस्पर दो विरोधी धर्मों को अविरोध रूप से एक ही समय एक ही वस्तु में कहे उसे प्रमाण दृष्टि या उभय दृष्टि कहते हैं। सो सत् सामान्यविशेषात्मक है यह अस्ति-नास्ति को बताने वाली प्रमाण दृष्टि है इसका वर्णन नं.७५९ में है। (१०) फिर आपकी दृष्टि वस्तु के त्रिकाली स्वभाव और परिणमन स्वभाव - दोनों स्वभावों पर एक साथ पहुँची तो आप कहने लगे कि वस्तु नित्य भी है, अनित्य भी है, नित्यानित्य है, उभय रूप है। यह प्रमाण दृष्टि है इसका वर्णन नं. ७६३ में है।(११) फिर परिणामन करती हुई वस्तु में आपकी दृष्टि तत्-अतत् धर्म पर गई। आपको दीखने लगा कि जो वही का वहीं है वही तो नया-नया है - अन्य-अन्य है। दूसरा थोड़ा ही है। इसको कहते हैं तत्-अतत् को बतलाने वाली प्रमाण दृष्टि। इसका वर्णन नं.७६७ में है।(२)फिर आपकी दृष्टि वस्त के एक-अनेक धर्मों पर पहुँची। जब आप प्रदेशों से देखने लगे तो अखण्ड एक दीखने लगा, लक्षणों से देखने लगे तो अनेक दीखने लगा तो झट आपने कहा कि वस्तु एकानेक है। जो एक है वही तो अनेक है। इसको कहते हैं एक-अनेक को बतलाने वाली प्रमाण दृष्टि। इस दृष्टि का वर्णन ७५५ में है।
(D) अब आपको अनुभय दृष्टि का परिज्ञान कराते हैं। (१३) ऊपर आप यह जान चुके हैं कि एक दृष्टि से वस्त सामान्य रूप है। दूसरी दृष्टि से बस्तु विशेष रूप है। तीसरी दृष्टि से वस्तु सामान्यविशेषात्मक है। अब एक चौथी दृष्टि वस्तु को देखने की और है। उस दुष्टि का नाम है अनुभव दृष्टि। जरा शान्ति से विचार कीजिये - वस्तु में न सामान्य है, न विशेष है, वह तो जो है सो है। अखण्ड है। यह तो आपको वस्तु का परिज्ञान कराने का एक ढंग था।कहीं सामान्य
और विशेष के प्रदेश भिन हैं क्या? नहीं। इस दष्टि में आकर वस्तु केवल अनभव का विषय रह जाती है। शब्द में आप कह ही नहीं सकते क्योंकि शब्द में तो विशेषण विशेष्य रूप से ही बोलने का नियम है। बिना इस नियम के कोई शब्द कहा ही नहीं जा सकता। जो आप कहेंगे वह विशेषण विशेष्य रूप पड़ेगा।इसलिये आपको अनुभव में तो बराबर आने लगा कि वस्तु न सामान्य रूप है न विशेष रूप है, वह तो अखण्ड है। जो है सो है। अनुभय शब्द का अर्थ है- दोनों रूप नहीं। इसलिये इसका नाम रखा अनुभय दृष्टि। दोनों रूप नहीं का भाव यह भी नहीं किन्तु यह है कि दोनों रूप अर्थात् भेद रूप नहीं किन्तु अखण्ड है। भेद के निषेध में अखण्डता का समर्थन निहित (छुपा हुआ) है(क) क्योंकि इसको विशेषण विशेष्य रूप से शब्द में नहीं बोल सकते इसलिये इसका नाम रखा अनिर्वचनीय दृष्टि या अवक्तव्य दृष्टि। (ख) क्योंकि वस्तु में किसी प्रकार भेद नहीं हो सकता। भेदको व्यवहार कहते हैं, अभेद को निश्चय कहते हैं। इसलिये इस दृष्टि का नाम रखा निश्चय दृष्टि।(ग) क्योंकि ये भेद का निषेध करती है इसलिये इसका नाम हुआ भेद निषेधक दृष्टि या व्यवहार निषेधक दृष्टि (घ) शब्द में जो कुछ आप बोलेंगे उसमें वस्तु के एक अंग का निरूपण होगा, सारे का नहीं।
देखिये आपने कहा 'द्रव्य' ये तो द्रव्यत्वं गुण का द्योतक है, वस्तु तो अनन्त गुणों का पिण्ड है। फिर आपने कहा 'वस्तु वस्तु तो वस्तुत्व गुण की द्योतक है पर वस्तु में तो अनन्त गुण हैं। फिर आपने कहा 'सत्' या 'सत्त्व' ये अस्तित्व गुण के द्योतक हैं। फिर आपने कहा 'अन्वय' ये त्रिकाली स्वभाव का द्योतक है, पर्याय रह जाती है। आप कहीं तक कहते चलिये, जगत में कोई ऐसा शब्द नहीं जो वस्तु के पूरे स्वरूप को एक शब्द में कह दे। इसलिये जो आप कहेंगे वह विशेषण विशेष्य रूप-भेद रूप पड़ेगा। जब आप भेद रूप से सब वस्तु का निरूपण कर चुकेंगे और फिर यह दृष्टि आपके सामने आयेगी तो आप झट कहेंगे कि 'ऐसा नहीं' इसका अर्थ है भेद रूप नहीं किन्तु अखण्ड। इसको