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प्रथम खण्ड/द्वितीय पुस्तक
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भावार्थ - ७५२ से ७५५ तक- उदाहरण सहित तथा विशेषणविशेष्य भेद सहित निरूपण करना व्यवहार नय का लक्षण है। अत: सत् अनेक है या सत् एक है। यहाँ पर सत् विशेष्य-लक्ष्य है और अनेक या एक उसके विशेषणलक्षण है। अत: ये दोनों पद्य तो व्यवहार नय के उदाहरण हैं। फिर व्यवहार द्वारा विशेष्य विशेषण सहित निरूपण का निषेधक अर्थात् न एक है, न अनेक है, अखण्ड है, अवक्तव्य है- यह एक पद्य निश्चय नय का है। फिर जो अनेक है वही एक है यह जोड़ रूप ज्ञान प्रमाण है। एक पद्य इसका है। इस प्रकार चारों इकटे हैं। इस अधिकार में जो सत् को एक अनेक सिद्ध किया है, उस पर इन चार पद्यों द्वारा नय प्रमाण लगाकर दिखलाये गये हैं। नोट - इस अधिकार की प्रश्नावली अन्त में है।
परिशिष्ट
दृष्टि परिज्ञान (२) यह लेख इस ग्रन्थ के ७५२ से ७६७ तक १६ श्लोकों का मर्म खोलने के लिये लिखा है।* इस पुस्तक में चार दृष्टियों से काम लिया गया है उनका जानना परम आवश्यक है अन्यथा आप ग्रन्थ का रहस्य न पा सकेंगे| AB दो व्यवहार दृष्टि (एक प्रमाण दुष्टि D एक द्रव्य दृष्टि AB (१)राम अच्छा लड़का है। यहाँ राम
है और अच्छा उसका विशेषण है। जिसके बारे में कछ कहा जाय उसे विशेष्य कहते हैं और जो कहा जाय 'उसे विशेषण कहते हैं। इसी प्रकार यहाँ 'सत्' विशेष्य है और चार युगल अर्थात् आठ उसके विशेषण है। सत् सामान्य रूप भी है और विशेष रूप भी है। अत: यह कहना कि 'सत् सामान्य है'यहाँ सत् विशेष्य है और सामान्य उसका विशेषण है। इस वाक्य ने सत् के दो खण्ड कर दिये, एक सामान्य एक विशेष। उसमें से सामान्य को कहा। सो जो विशेष्य विशेषण रूप से कहे वह अवश्य सत् को भेद करता है जो भेद करे उसको व्यवहार नय कहते हैं। कौनसी व्यवहार नय कहते हैं ? तो उत्तर देते हैं कि जिस रूप कहे वही उस नय का नाम है। यह सामान्य व्यवहार नय है।(२) फिर हमारी दृष्टि विशेष पर गई। हमने कहा 'सत् विशेष हैं'यहाँ सत् विशेष्य है और विशेष उसका विशेषण है यह विशेष नामवाली व्यवहार नय है। जिस रूप कहना हो वह अस्ति दूसरा नास्ति। अस्ति अर्थात् मुख्य, नास्ति अर्थात् गौण। इनका वर्णन नं.७५६,७५७ में है। सत् रूप देखना सामान्य, जीव रूप देखना विशेष अब नित्य-अनित्य नय को समझाते हैं (३)आपकी दृष्टि त्रिकाली स्वभाव पर गई।आपने कहा कि सत् नित्य है।सत् विशेष्य है और नित्य उसका विशेषण है। यह सत् में भेद सूचक नित्य नामा व्यवहार नय हुई। इसका वर्णन नं. ७६१ में है। (४) फिर आपकी दृष्टि वस्तु के परिणमन स्वभाव पर(परिणाम पर,पर्याय पर) गई आपने कहा'सत् अनित्य है यहाँ सत विशेष्य है और अनित्य उसका विशेषण है। यह अनित्य मामा व्यवहार नय है। इसका वर्णन नं. ७६० में है। ____ अब तत्-अतत् नय को समझाते हैं (५) जब आपने वस्तु को परिणमन करते देखा तो आपकी दृष्टि हुई कि अरे यह तो वही का वही है जिसने मनुष्य गति में पुण्य कमाया था वही स्वर्ग में फल भोग रहा है तो आपने कहा 'सत्तत् है'। यह तत् नामा व्यवहार नय है। इसका वर्णन नं.७६५ में है।(६)फिर आपकी दृष्टि परिणाम पर गई तो आपने कहा अब वह तो मनुष्य था, यह देव है, दूसरा ही है, तो आपने कहा 'सत्-अतत् है' यह अतत् नामा व्यवहार नय है इसका वर्णन नं.७६४ में है। अब एक अनेक का परिज्ञान कराते हैं। (७) किसी ने आपसे पूछा कि सत् एक है या अनेक तो पहले आपकी दृष्टि एक धर्म पर पहुंची। आपने सोचा उसमें प्रदेश भेद तो है नहीं, कई सत् मिलकर एक
* ये श्लोक इस ग्रन्थ के प्रथम भाग के अन्त में हैं। भावार्थ के लिए आगे 'दृष्टि परिज्ञान' देखिये ।
पञ्चाध्यायीकार ने यह दष्टि परिज्ञान श्री समयसार की मूल गाथा नं.२७२ की प्रथम पंक्ति तथा २७५ की टीका तथा २७६, २७७ के शीर्षक से लिया है। अन्तर केवल यह है कि वहाँ केवल आत्मा का प्रकरण होने से आचार्य देव ने इन दृष्टियों को आत्मा पर प्रयोग किया है। इन्होंने इसे सत् परिज्ञान में प्रयोग किया है। ग्रन्थकार को उपर्युक्त दोनों आवार्यों के पेट का ज्ञान कहाँ तक था इसका यह स्पष्ट प्रमाण है। इन्हीं की ही शक्ति थी जो ऐसा भाव निकाल लिया। साधारण व्यक्ति तो क्या, प्रौढ़ विद्वान भी ऐसा नहीं कर सकता। पंचाध्याधीकार की अध्यात्म विषय में दिव्य शक्ति थी, इसका पग-पग पर सबूत मिलता है या ये स्वयं अमृतचन्द्र आचार्य ही हो तो दूसरी बात है वरना उनके रूपान्तर तो थे ही।