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ग्रन्धराज श्री पञ्चाध्यायी
समाधान- अब उसके उत्तर में आचार्य उसे समझाते हैं कि तेरी सब मान्यता गलत है। वह सत् तो द्रव्य की अपेक्षा से आमवत् एक है और स्पर्श-रस-गंध-वर्ण की तरह गुणपर्यायें उसमें अनेक हैं, क्षेत्र की अपेक्षा से स्वाभाविक असंख्यात्या अनन्त या एक प्रदेश का अखण्ड पिण्ड है इसलिये एक हैं और चौड़ाई समझने के लिये जो प्रदेशों की कल्पनाया एक प्रदेश में छ: कोण की कल्पना से अनेक है। पर्याय की अपेक्षा अनादि अनन्त परिणमन में वह अखण्ड स्वभावी एक है और समय-समय के भिन्न-भिन्न परिणमन की अपेक्षा अनेक है, भाव की अपेक्षा सोने की लठवत् एक है और वह लठ पौली, भारी, चिकनी अनेक रूप दीखती है इसलिये अनेक है ऐसे सत् अनन्त गुणों का एक शरीर होने से सारा का सारा एक गुण रूप दीखता है इसलिये एक है गुण भेद की अपेक्षा अनेक है अर्थात् हर प्रकार से अनेक सत्ता मिलकर एक नहीं है किन्तु स्वतः सिद्ध एक है। इस पर फिर शिष्य पूछता है कि अनेकहेतुक एक है या नहीं तो कहते हैं कि अनेकहेतुक एक तो है पर जिस प्रकार का अनेकहेतुक एक तू समझता है वैसा नहीं है अर्थात् अनेक सत् मिलकर एक नहीं है। हैं तो अखण्ड एक जैसे आम, पर जिस प्रकार आम में स्पर्श, रस, गंध, वर्ण भिन्नभिन्न इन्द्रियों से भिन्न-भिन्न रूप केवल प्रतीति में आता है, उस प्रकार अनेक है ऐसा नहीं है कि रस तुम ले लो और रूप मुझे दे दो। इसी प्रकार सत् है तो एक पर ज्ञान से उसमें गुणपर्यायों की, प्रदेशों की, पर्यायों की और गुणों की भिन्नता भी दीखती है, प्रतीति में आती है। इस नीति के अनुसार मेला की है। प्रीति अ५ः५ अनेकहेतुक एक है।
नोट - वस्तु की अनेकान्तात्मक स्थिति' नामा महाअधिकार में एक अनेक युगल का वर्णन करनेवाला चौथा अवान्तर अधिकार समाप्त हुआ तथा दूसरा महाअधिकार भी समाप्त हुआ। सद्गुरुदेव की जय !
एक अनेक पर नय प्रमाण लगाने की पद्धति ७५२ से ७५५ तक* अस्ति द्रव्यं गुणोऽथवा पर्यायरतत् त्रयं मिथोऽनेकम् ।
व्यवहारैकविशिष्टो नयः स वाऽनेकसंज्ञको न्यायात् ॥ ७५२ ॥ अर्थ - द्रव्य-गुण अथवा पर्याय ये तीनों अपने अपने स्वरूप से हैं, इसलिये ये तीनों परस्पर में भी अनेक हैं - भिन्न हैं। इस प्रकार व्यवहार नयों के अन्तर्गत एक नय है वह न्यायानुसार अनेकता को प्रतिपादन क नामवाली एक व्यवहार नय है।
एकं सदिति द्रव्यं गुणोऽथवा पर्ययोऽथता नाम्ना ।
इलरत् द्वयमन्यतरं लब्धमनुक्तं स एकनयपक्षः ॥ ७५३॥ अर्थ - नाम से चाहे द्रव्य कहो अथवा गुण कहो अथवा पर्याय कहो पर सामान्यपने ये तीनों ही अभिन्न एक सत् है। इसलिये इन तीनों में से किसी एक के कहने से बाकी दो का बिना कहे हयेही ग्रहण हो जाता है। इस प्रकार जो सत् को एक कहता है वह एक नामवाली एक व्यवहार नय है।
न दव्य नापि गणोनच पर्यायो निरंशदेशत्याल ।
व्यक्तं न विकल्पाटपि शुद्धद्रव्यार्थिकरय मतमेतत् ।। ७५४ ।। अर्थ - निरंश देश होने से अर्थात् वस्तु अखण्ड होने से भेद रूप से न द्रव्य है, न गुण है, न पर्याय है और वह वस्तु किसी विकल्प से भी व्यक्त नहीं की जा सत
| भी व्यक्त नहीं की जा सकती है ( क्योंकि अनिर्वचनीय है) यह शुद्ध द्रव्यार्थिकनय की मान्यता है।
द्रव्यगुणपर्यायाख्यैर्यटनकं सदविभिद्यते हेतोः ।
तदभेद्यमनंशत्वादेकं सदिति प्रमाणमतमेतत् ।। ७५५ ॥ अर्थ - युक्तिवश से जो सत् द्रव्य, गुण, पर्यायों के द्वारा अनेकरूप भेद किया जाता है वही सत् अंश रहित (अखण्ड) होने से अभेद्य एक है यह ( एकअनेकात्मक-भयरूप) प्रमाण पक्ष है।
भावार्थ - युक्तिपूर्वक जिस सत् को द्रव्य-गुण-पर्याय की अपेक्षा से अनेक कहा है वही सत् अंश रहित होने से अभेद्य एक ही है इस प्रकार युगपत् एक अनेक को विषय करनेवाला जोड़ रूप ज्ञान प्रमाण का पक्ष है। जो अनेक है वही एक है।