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प्रथम खण्ड/द्वितीय पुस्तक
प्रकार सत् अनुभव है। ( ३ ) एक-एक अंश लक्षण भेद से भिन्न होने से सत् व्यस्तरूप है और (४) अखण्ड एक सामान्य रूप होने से समस्त रूप है । (५) गणना की अपेक्षा अंशों को भिन्न-भिन्न क्रमशः गिनने से सत् कमवर्ती है। ( श्री प्रवचनसार गाथा ९९ ) और ( ६ ) अखण्ड एक स्वभाव होने से अक्रमवर्ती है। ( ७ ) इस एक अनेक के दो भंग कह दिये हैं। शेष पांच भंग इनके योग से जान लेना। ऐसा ग्रन्थकार का शेष विधि कहने से आशय है। सो जानना । अन्त में दृष्टि परिज्ञान तथा सप्तभंगी विज्ञान देखिये ।
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एक अनेक आदि की परस्पर सापेक्षता
तस्माद्यदिह सदेकं सदनेकं स्यात्तदेव युक्तिवशात् ॥
अन्यतरस्य विलोपे शेषविलोपस्य दुर्निवारत्वात् ॥ ५०० ॥
अर्थ - इसलिये जो सत् एक है वही युक्तिवश से अनेक भी सिद्ध होता है। यदि एक और अनेक इन दोनों में से किसी एक का लोपकर दिया जाय तो दूसरे का लोप भी दुर्निवार अवश्यम्भावी है अर्थात् एक-दूसरे की अपेक्षा रखता है दोनों की सिद्धि में दोनों की सापेक्षता ही कारण है। एक की असिद्धि में दूसरे की असिद्धि स्वयं सिद्ध है। इसी का निरूपण जैसा पहले श्लोक नं. १५ से १९ तक तथा २८९ से ३०८ तक 'चुका है। वैसा यहाँ भी जान लेना । सर्वथा निरपेक्ष 'एक' का खण्डन
अपि सर्वथा सदेकं स्यादिति पक्षो न साधनायालं । इह तदवयवाभावे नियमात् सदवयविनोऽप्यभावत्वात् ॥ ५०१ ॥
अर्थ सत् सर्वथा एक है यह पक्ष भी वस्तु की सिद्धि कराने में समर्थ नहीं है। वस्तु के अवयवों के अभाव में वस्तु रूप अवयवी भी नियम से सिद्ध नहीं होता है।
सर्वथा निरपेक्ष 'अनेक' का खण्डन
सपि सदनेकं स्यादिति पक्षः कुशलो न सर्वथेति यतः ।
एकमनेकं स्यादिति नानेकं स्थादनेकमेकैकात् ॥ ५०२ ||
अर्थ - सत् सर्वथा अनेक है यह पक्ष भी सर्वथा ठीक नहीं है क्योंकि एक ही अनेक है किन्तु एक-एक मिलकर अनेक 'अनेक' होता है ऐसा नहीं है ( यह अन्तिम श्लोक बहुत मार्मिक लिखा है।) इसका स्पष्ट अर्थ यही है कि अनेकहेतुक एक नहीं है किन्तु प्रतीति के अनुसार अनेक है। वास्तव में एक है। यह ध्यान रहे एकता निश्चय नय का विषय है और अनेकता व्यवहार नय का विषय है। ज्ञान दृष्टि से वस्तु प्रमाणस्वरूप है।
एक अनेक अधिकार का सार
एक अनेक का सम्बन्ध गणना से है जैसे एक, दो, तीन इत्यादि। वह गणना दो प्रकार से होती है एक तो ऐसे जैसे भिन्न-भिन्न दस दवाइयों की मिलाकर एक गोली बना ली। अब वह गोली की अपेक्षा तो एक है किन्तु दवाइयों की अपेक्षा अनेक है क्योंकि भिन्न-भिन्न प्रदेशवाली अनेक वस्तुओं की वह एक समुदायात्मक गोली है। इस प्रकार एक अनेक तो शंकाकार मानता है उसका कहना है कि द्रव्य की अपेक्षा तो, दवाइयों की तरह, गोरस की तरह, स्वर्ण पाषाण की तरह भिन्न-भिन्न अनन्त गुण और अनन्त पर्यायें अपने-अपने प्रदेशों में सत्तारूप हैं और उनका मिलकर गोलीवत् एक सत् है, क्षेत्र की अपेक्षा उसका कहना है कि माला के दानों की तरह एक-एक प्रदेश भिन्न-भिन्न सत्तावाला अनेक है और उनका जुड़कर असंख्यात् या अनन्त प्रदेशी द्रव्य एक है। उसमें कभी कम प्रदेश भी हो जाते हैं कभी अधिक भी जैसे दीपों की रोशनी बढ़ भी जाती है, घट भी जाती है। काल की अपेक्षा उसका कहना है कि भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीन काल के समयों की एक-एक समय की भिन्न-भिन्न सत्तात्मक पर्याय है और उन सब पर्यायों का मिलकर एक काल है। जैसे अगले- अगले समय में शरीर बढ़ता जाता है वैसे अगले- अगले काल में सत् बढ़ता जाता है और जैसे बुढ़ापे में शरीर घटता जाता है वैसे भूतकाल के समयों से वह सत् घटता जाता है। भाव की अपेक्षा उसका कहना है कि जैसे अनेक परमाणु मिलकर स्कंध में एक बनता है। ऐसे भिन्न-भिन्न अनन्त गुण मिलकर एक सत् है और जैसे स्कन्ध में परमाणु कम-ज्यादा हो जाते हैं। ऐसे सत् में भाव ( गुण) कम-ज्यादा भी हो जाते हैं। इस सारे कथन का सार यह है कि वह हर प्रकार से अनेक सत्ताओं का मिलकर एक सत् अर्थात् अनेकहेतुक एक सत् मानता है।