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________________ १२४ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी भावार्थ - बिना कथंचित् भेद पक्ष स्वीकार किये अभेद पक्ष भी नहीं सिद्ध होता क्योंकि भेद द्वारा ही तो अभेद की सिद्धि की जाती है। उभयात्मक ही वस्तु स्वरूप है। अब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव चारों ही से वस्तु में भेद सिद्ध किया जाता है। द्रव्य से 'अनेक' अस्ति गुणस्तल्लक्षणयोगादिह पर्ययस्तथा च स्यात् । तदनेकत्वे नियमात सदजेकं दव्यतः कथं न स्यात् ॥४९५॥ अर्थ - गुण अपने गुणत्व लक्षण के योग से भिन्न है। उसी प्रकार पर्याय अपने पर्यायत्व लक्षण के योग से भिन्न है। उन गणपर्यायों की नियम से अनकताम द्रव्य की अपेक्षा से सत् अनंक क्यों नहाँ है ? अर्थात् भेद विवक्षा से सत् कथंचित् अनेक भी है। यह अनेकत्व लक्षण भेद से ही है। सत्ता भेद से नहीं है। क्षेत्र से 'अनेक' यत्सत्तदेकदेशे तद्देशे न तद्वितीयेषु । अपि तद्वितीयदेशे सदनेक क्षेत्रतश्च को नेच्छेत् ॥ ४९६॥ अर्थ - जो सत् एक देश में है वह उसी देश में है वह दूसरे आदि देशों में नहीं है। इसी प्रकार दूसरे देश में जो सत् देशों में नहीं है अतः क्षेत्र की अपेक्षा से सत् अनेक कौन नहीं चाहेगा? सभी चाहेंगे (यह अनेकता कथंचित् है सर्वथा नहीं है। कालद्रव्य तथा शुद्ध पुद्गल परमाणु छः कोण की अपेक्षा अनेक है)। काल से 'अनेक' यत्सत्तदेककाले तत्तत्काले न तदितरत्र पुनः ! अपि सत्तदितरकाले सटनेक कालतोऽपि तदवश्यम् ॥ ४९७॥ अर्थ - जो सत् एक काल (पर्याय) में है वह उसी काल में है वह दूसरे कालों में नहीं है। इस प्रकार जो सत् दूसरे काल में है वह उसी काल में है उससे भित्र पहले में अथवा तीसरे आदि काल में नहीं है। अतः काल की अपेक्षा भी वह सत् अनेक अवश्य है यह अनेकता पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से है। अतत् दृष्टि से है। इस दृष्टि से प्रत्येक समय का सत् भिन-भिन्न है। भाव से अनेक तन्मात्रत्वादेको भावो यः स न तदन्यभाव: स्यात् । भवति च तदन्यभावः सदनेक भावतो भवेन्जियतम् ॥ ४९८॥ अर्थ - जो एक भाव है वह अपने स्वरूप से उसी प्रकार है, वह अन्य भावरूप नहीं हो सकता है और जो अय भाव है वह अन्य रूप ही है, वह दूसरे भाव रूप नहीं हो सकता है। इसलिए भाव की अपेक्षा से भी नियम से सत् अनेक है।गुणों की यह अनेकता लक्षण दृष्टि से है। प्रतीति अनुसार है। सर्वथा नहीं है तथा यहाँ गुणांश की भिन्नता की बात नहीं है किन्तु ज्ञान, दर्शन, सुखादि गुण भिनता की बात है। अनेकत्व पूरा हुआ उभय अनुभय आदि शेष भंगों का समर्थन शेषो विधिरूक्तत्वादत्र न निर्दिष्ट एव दृष्टान्तः । अपि गौरवप्रसंगाद यदि वा पुनरुक्तदोषभयात् ||४९९ ॥ अर्थ - बाकी की विधि ( सत् उभय-अनुभय आदि रूप) पहले ही कही जा चुकी है। इसलिये वह नहीं कही जाती है। गौरव के प्रसंग से अथवा पुनरुक्त दोष के भय से उस विषय में दृष्टान्त भी नहीं कहा जाता है। भावार्थ - (१) जो सत् लक्षण भेद के कारण द्रव्य-गुण-पर्याय आदि अंशों से विभाजित अनेक हैं, वही सत् निरंश होने से अभेद्य एक है। इस प्रकार सत् उभय है।(२) निरंश देश होने से जिसमें द्रव्य-गुण-पर्याय की कल्पना ही नहीं है अर्थात् न एक हैन अनेक है। किसी विकल्प से व्यक्त ही नहीं किया जा सकता है। अखण्ड अनिर्वचनीय है। इस
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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