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प्रथम खण्ड/द्वितीय पुस्तक
की सारी लठ स्निग्ध प्रतीत होगी। यद्यपि पीला, भारी, स्निग्ध गुण लक्षणभेद से भिन्न हैं पर उनका अन्वय द्रव्य इस कमाल से एक है कि सब गुण एक में अन्तर्लीन होकर अपने को उस विवक्षित गुण रूप ही उपस्थित कर देते हैं। यह भाव की अपेक्षा एकत्व है।(२)इसी प्रकार एक आम को लीजिये। रूप की दृष्टि से देखिये तो सारे का सारा पीला है। रस की दृष्टि से देखिये तो सारे का सारा मीठा है। (३) इसी प्रकार जीव को लीजिये। जिस समय जीव को ज्ञानी कहा जाता है उस समय विचार करने पर सम्पूर्ण जीव ज्ञानमय ही प्रतीत होता है। द्रष्टा कहने पर वह दर्शनमय ही प्रतीत होता है। सुखी कहने पर वह सुखमय ही प्रतीत होता है। ऐसा नहीं है कि ज्ञानी कहने पर जीव में कुछ अंश तो ज्ञानमय प्रतीत होता हो कुछ दर्शनमय होता हो और कुछ अंश सुखमय प्रतीत होता हो किन्तु सर्वाश ज्ञानमय ही प्रतीत होता है। सुखी कहने पर सर्वाश रूप से जीव सुखमय ही प्रतीत होता है। यदि ऐसा न माना जाय तो ज्ञानी कहने से सम्पूर्ण जीव का बोध नहीं होना चाहिए अथवा द्रष्टा और सुखी कहने से भी सम्पूर्ण जीव का बोध नहीं होना चाहिए किन्तु उसके एक अंश का ही बोध होना चाहिये परन्तु ऐसा बोध नहीं होता है। क्योंकि सब गुणों का तादात्म्य अन्वय पिण्ड एक है इसलिये सब एक में अन्तर्लीन होकर अपने को एक रूप ही उपस्थित कर देते हैं। यह भाव से एकत्व है। इस विषय में पूर्व श्लोक नं. १४४ तथा १५३ से १५६ भी पढ़िये। वहाँ भी इसका स्पष्टीकरण हो चुका है। गुणों की यह एकता भी अनेक हेतुक एक नहीं है किन्तु स्वतः सिद्ध एकत्व है। शंकाकार इस विषय को इस प्रकार सिद्ध करना चाहता है कि द्रव्य तो एक पुद्गल स्कन्धवत् है और एक-एक गुण उसमें एक-एक परमाणुवत् है। जैसे उस स्कन्ध में कोई परमाणु आता रहता है उस प्रकार तो गुणों की वृद्धि होती है और जिस प्रकार कोई परमाणु स्कंध से जुदा भी हो जाता है उस प्रकार सत् में गुण की हानि भी होती है इससे वह द्रव्य को भाव की अपेक्षा अनेकहेतुक एक सिद्ध करना चाहता है और गुणों की हीनाधिकता से एक-एक गुण की सर्वथा स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध करना चाहता है किन्तु यह प्रत्यक्ष मिथ्या है। लक्षणा गरम दृष्टस्ताभास है। यहाँको मार आव और गुण, स्पर्श, रस, गंध वर्णवत् है। अत: वह द्रव्य वास्तव में एक है। गुणों के लक्षण भेद से प्रतीति के अनुसार अनेक भी कह देते हैं। जिसका स्पष्टीकरण हम पहले द्रव्य की अपेक्षा एक के सार में लिख ही चुके हैं।
अगली भूमिका - अनेकपने का रहस्य यहाँ तक आचार्यदेव ने डटकर अनेकपने का खण्डन किया है और द्रव्य को हर प्रकार से एक सिद्ध किया है। अब यह समझाते हैं कि यह बात तो सोला आने सही है ही कि वह अनेकसत्ताओं का मिलकर एक सत् ( अनेकहेतुक एक) नहीं है, पर हे शिष्य ! तुझे यह भी समझ लेना चाहिये कि वह एकता भी सर्वथा एकता नहीं है। हम जैन लोग किसी अपेक्षा से सत् को अनेक भी मानते हैं। वह अपेक्षा पर्याय दृष्टि है। भेद कल्पना है। क्योंकि अवयवों के अभाव में अवयवी का अभाव ठहरता है अथवा व्यतिरेक (भेद) के अभाव में अन्वय( अभेद) की सत्ता भी सिद्ध नहीं होती है। अत: वह अनेकता द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से चारों प्रकार से है जो क्रमश: समझाते हैं। किन्तु यह ध्यान रहे कि वह अनेकता प्रतीति के अनुसार है। लक्षण भेद से है। सर्वथा नहीं है। प्रदेश भेद से नहीं है।
___ अनेकपने में युक्ति ४९३-९४ ।। एवं भवति सदेकं भवति न तटपि च निरंकुश किन्तु ।
सदनेकं स्यादिति किल सप्रतिपक्ष यथाप्रमाणाद्वा ॥४९३॥ अर्थ - इस प्रकार यद्यपि सत् एक है तथापि वह सर्वधा-निरपेक्ष-निरंकुश स्वतन्त्र एक नहीं है। इसका प्रतिपक्ष भी प्रमाण सिद्ध है इसलिये बह निश्चय से अनेक भी है। यह अनेकता प्रतीति ( अनुभव-लक्षण ) के अनुसार है। अनेक सत्ताओं के आधार से नहीं है।
अपि च स्यात् सदनेक तदव्याद्दौररवण्डितत्त्वेऽपि |
व्यतिरेकेण बिना यन्नान्वयपक्ष: स्वपक्षरक्षार्थम् ॥ ४९४|| अर्थ- यद्यपि सत् द्रव्य, गुण, पर्यायों से अखण्ड है तथापि वह अनेक है क्योंकि बिना व्यतिरेक पक्ष स्वीकार किये अन्वय पक्ष भी अपनी रक्षा नहीं कर सकता है।