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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
न च किंचित् पीतत्त्तं किंचित् स्निग्धत्वमस्ति गुरुता च ।
तेषामिह समवायादस्ति सुवर्णरित्रसत्वसत्ताकः ॥ ४८७॥ अर्थ - ऐसा नहीं है कि उस सोने में कुछ तो पीतिमा हो, कुछ स्निग्धता हो और कुछ गुरुता हो, और उन सब के समवाय से तीन सत्ताओं वाला एक सोना कहलाता हो।(फल, फूल, पत्तों से मिलकर बने हुये वृक्ष की तरह नहीं है)।
इदमत्र तु तात्पर्य यत्पीतत्तं गुणः सुवर्णस्य ।
अन्तीनगुरुत्वाद्विवक्ष्यते तद्गुरुत्वेन || ४८८॥ अर्थ - किन्तु यहाँ यह तात्पर्य है कि सोने का जो पीत गुण है उसमें गुरुत्व गुण अन्तलीन होने से वह पीत गुण ही गुरुत्वपने से विवक्षित किया जाता है।
ज्ञानत्वं जीवगुणस्तदिह विवक्षावशात् सुरवत्वं स्यात् ।
अन्तलीलत्वादिह तटेकसत्त्वं तदात्मकत्वाच्च ॥४८९॥ अर्थ -(इसी प्रकार) ज्ञानपना जीव का गुण है वही यहाँ विवक्षा वश से सुखरूप हो जाता है। उसज्ञान में सुख अन्तलीन होने से वह एक सत्तावाला है क्योंकि वह (ज्ञान ) तदात्मक ( सुखात्मक ) है।
(श्री प्रवचनसार याथा ५९-६०-६१)
शंका ननु निर्गुणा गुणा इति सूत्रे सूक्तं प्रमाणतो वृद्धैः ।
तत् किं ज्ञानं गुण इति विवक्षितं स्यात् सुरवत्वेन || ४९० ॥ अर्थ - शंका-गुण निर्गुण हैं। ऐसा तत्वार्थ सूत्र में प्रमाण से वृद्ध पुरुषों द्वारा( अनुभवी आचार्यों द्वारा ) कहा गया है। तब फिर ज्ञान गुण समारने से विवक्षित कैसे हो सकता?
भावार्थ - जब एक गुण में दूसरा गुण रहता ही नहीं है ऐसा सिद्धान्त है , तब ज्ञान में सुख की अन्तलीनता अथवा सुख में ज्ञान की अन्तलीनता यहाँ पर क्यों बतलाई गई है ?
समाधान सत्यं लक्षण दागुणभेदो निर्विलक्षण: स स्यात् ।
तेषां तदेकसत्वावखण्डितत्वं प्रमाणतोऽध्यक्षात् ॥ १९१।। अर्थ - ठीक है, परन्तु बात यह है कि गुणों में जो भेद है वह उनके लक्षणों के भेद से है। वह ऐसा भेद नहीं है कि गुणों को सर्वथा जुदा-जुदा सिद्ध करने वाला हो। उन संपूर्ण गुणों की एक ही सत्ता है इसलिये प्रत्यक्ष प्रमाण से उनमें अखण्डता अभेद सिद्ध है।
उपसंहार तस्माटनतद्यमिदं भावेनारखण्डितं सदेकं स्यात् ।
सदपि विवक्षावशतः स्यादिति सर्व न सर्वथेलि जयात || ४९२॥ अर्थ - उपर्युक्त कथन से यह बात निर्दोष रीति से सिद्ध हो चुकी कि भाव की अपेक्षा से सत् अखण्डित एक है। इतना विशेष समझना चाहिए कि वह सत् की एकता विवक्षा के आधीन है। सर्वथा एकता उसमें असिद्धही है. क्योंकि वस्तु में एकता और अनेकता किसी नय विशेष से सिद्ध होती है।
भाव से एकत्व का सार द्रव्य अनन्त गुणों का अखण्ड तादात्म्य एक पिण्ड है और वह भी ऐसा पिण्ड है कि जिस गुण की विवक्षा करके उसे देखो, सम्पूर्ण द्रव्य उसी रूप प्रतीत होगा, बस यही भाव से एकत्व का रहस्य है। ( १ ) दृष्टांत के लिये एक सोने का लठ लीजिये। उसे पीलेपन की दृष्टि से देखिये तो सारी की सारी लठ पीली दृष्टिगत होगी। फिर उसी लठ को भारीपन की दृष्टि से देखिये तो सारी की सारी लठ भारी प्रतीत होगी। फिर उसे स्निग्धत्व की दृष्टि से देखिये, सारी