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प्रथम खण्ड / द्वितीय पुस्तक
तेलातण्डतया स्यादेकं सच्चैकदेशनयोगात् ।
तल्लक्षणमिदमधुना विधीयते सावधानतया ॥ ५८० ॥
अर्थ उस भाव से भी अखण्डितपने के कारण द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से सत् एक है। भाव की अपेक्षा से सत् एक है इस विषय का लक्षण (स्वरूप) सावधानी से इस समय कहा जाता है।
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सर्व सदिति यथा स्यादिह संस्थाप्य गुणपंक्तिरूपेण ।
पश्यन्तु भावसादिह निःशेषं सन्नशेषमिह किञ्चित् ॥ ८१ ॥ अर्थ- सम्पूर्ण सत् को गुणों की पंक्तिरूप से यदि स्थापित किया जाय तो उस सम्पूर्ण सत् को आप भाव रूप ही देखेंगे। भावों (गुणों) को छोड़कर सत् में और कुछ भी आपकी दृष्टि में न आवेगा ( क्योंकि वह गुणों का ही समुदाय हैं ) ।
भाव से एकत्व का लक्षण
एकं तत्रान्यतरं भावं समपेक्ष्य यावदिह सदिति ।
सर्वानपि भावानिह व्यस्तसभस्तानपेक्ष्य सत्तावत् ॥ ८२ ॥
अर्थ - इन भावों में से किसी एक भाव की अपेक्षा विचार करने पर सत् जितना है, सब भावों की अपेक्षा पृथक् - पृथक्या मिलाकर विचार करने पर वह सत् उतना ही है।
लक्षणाभास तथा दृष्टांताभास
न पुनर्द्वयणुकादिरिति स्कन्धः पुद्गलमयोऽस्त्यणूनां हि ।
लघुरपि भवति लघुत्वे सति च महत्वे महानिहारित यथा ॥ ४८३ ॥
अर्थ- जिस प्रकार पुद्गलमय द्व्यणुकादि स्कन्ध परमाणुओं के कम होने से छोटा और उनके अधिक होने पर बड़ा हो जाता है उस प्रकार सत् में गुणों के कम होने से छोटापन और गुणों के बढ़ने से बड़ापन नहीं होता है। अर्थात् उसमें से न तो कोई गुण कहीं चला जाता है और न कोई कहीं से आ जाता है। वह जितना है सदा उतना ही रहता है।
अयमर्थो वस्तु यदा लक्ष्येत विवक्षितैकभावेन ।
तन्मात्र सटिति स्यात् सन्मानैः स च विवक्षितो भावः ॥ ४८ ॥
अर्थ - अर्थ यह है कि जब वस्तु विवक्षित एक भाव रूप से देखी जाती है, उस समय सत् विवक्षित उस भाव रूप ही प्रतीत होता है और वह विवक्षित भाव भी सत् मात्र ही प्रतीत होता है।
यदि पुनरन्यतरेण हि भावेन विवक्षितं सदेव स्यात् ।
तन्मात्रे सदिति स्यात् सन्मानः स च विवक्षितो भावः ॥ ४८५ ॥
अर्थ - इसी प्रकार यदि वह सत् किसी अन्य भावरूप से विवक्षित होता है, उस समय वह सत् उस भाव रूप ही प्रतीत होता है और वह विवक्षित भाव भी सत् मात्र ही प्रतीत होता है।
भावार्थ- जिस समय जिस भाव की विवक्षा की जाती है, उस समय संपूर्ण वस्तु उसी भाव रूप प्रतीत होती है। बाकी के सब उसी में अन्तलींन हो जाते हैं। इसका कारण भी उसका तादात्म्य भाव है।
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दृष्टांत तीन श्लोक इकट्ठे
अत्रापि च संदृष्टिः कनकः पीतादिमानिहारित यथा ।
प्रीतेन पीतमात्रो भवति गुरुत्वादिना च तन्मात्रः ॥ ४८६ ॥
अर्थ वस्तु जिस भाव से विवक्षित की जाती है, उसी भावमय प्रतीत होती है, इस विषय में सुवर्ण (सोने) का दृष्टांत भी है। सुवर्ण में पीलापन, भारीपन, चमकीलापन आदि अनेक गुण हैं। जिस समय वह पीत गुण से विवक्षित किया जाता है उस समय वह पीतमात्र ही प्रतीत होता है तथा जिस समय वह सुवर्ण गुरुत्व गुण से विवक्षित किया जाता है उस समय वह गुरुरूप ही प्रतीत होता है।