________________
प्रथम खण्ड/द्वितीय पुस्तक
पहला लक्षणभाम तथा दृष्टांताभास ४५५-५६ न पुनश्चैकापतरकसञ्चरितानेकटीपवत्सदिति ।
हि यथा दीपसमृद्धौ प्रकाशवृद्भिरतथा न सदवृद्धिः ।। ४५५ ॥ अर्थ- जिस प्रकार किसी मकान के भीतर एक दीप, फिर दूसरादीप,फिर तीसरा,फिर चौथा इस क्रम से अनेक दीप लगाये जावें, तो जितने-जितने दीपों की संख्या बढ़ती जायेगी उतनी-उतनी ही प्रकाश की वृद्धि भी होती जायेगी। उस प्रकार सत् ( क्षेत्र) नहीं है। सत् ( क्षेत्र) की वृद्धि अनेक दीपों के प्रकाश के समान नहीं होती है।
अपि तत्र दीपशमजे कस्मिंश्चित्तत्पकाशहानिः स्यात् ।
न तथा स्यादविवक्षितदेशे तद्धानिरेकरूपत्वात || ४५६ ॥ अर्थ - ऐसा भी नहीं है कि जिस प्रकार मकान में रखे हुये अनेक दीपों में से किसी दीप के बुझ जाने पर उस मकान में कुछ प्रकाश की कमी हो जाती है, उस प्रकार सत् (क्षेत्र) की भी कमी हो जाती है। किन्तु अविवक्षित देश में सत् की हानि नहीं होती है, वह सदा एक रूप ही रहता है।
भावार्थ - दृष्टांत में दीपकों के प्रकाश को क्षेत्र समझना। जिस प्रकार दीपकों के प्रकाश की वृद्धि-हानि होती है, उस प्रकार सत् क्षेत्र की कभी हानि-वृद्धि नहीं होती। वह सदा एक जैसा ही रहता है। उसमें हानि-वृद्धि मानना पहला लक्षणाभास है। भाव यह है कि जिस प्रकार एक कमरे का प्रकाश अनेकहेतुक एक है अर्थात् एक-एक भिन्नभिन्न प्रकाश क्षेत्र मिलकर वह सारा एक प्रकाश क्षेत्र है, उस प्रकार सत् क्षेत्र का ( सत् देश का) एक-एक भिन्न-भिन्न देशांश मिलकर सत् का एक क्षेत्र बना हो, ऐसा मानना लक्षणाभास है अर्थात् ऐसा नहीं है। सत् का स्वतः सिद्ध स्वभाव से अखण्ड देश है। तथा जिस प्रकार दीपकों के प्रकाश की हानि-वृद्धि होती है उस प्रकार सत् क्षेत्र की हानि-वृद्धि भी नहीं होती है। जैसा आत्मा का देश असंख्यात् प्रदेश है। वह अखण्ड एक है। वे प्रदेश मोतियों की मालावत् जैसे
-एक मोती मिलाकर एक माला बनी हो और उसमें कभी मोती कम कभी अधिक भी होते हैं उस प्रकार आत्मा के असंख्यात् प्रदेश एक-एक करके जुड़े हों और कभी उनमें कुछ कम कुछ अधिक हो जाते हों, ऐसा नहीं है । आत्मा का क्षेत्र अनेकहेतुक एक नहीं है किन्तु स्वतः सिद्ध एक है तथा उसमें जो क्षेत्र अर्थात् देशाँश की अपेक्षा अनेकता है वह दीपों की रोशनीवत् अनेक हेतुक एक नहीं है किन्तु प्रतीति के अनुसार अनेकता है । प्रतीति का अर्थ यह है कि चींटी के शरीर में प्रदेश संकुचित होते और हाथी के शरीर में फैलते प्रत्यक्ष अनुभव में आते हैं तथा कायत्वअकायत्व और महत्व-अमहत्व का परिज्ञान करने के लिये देशांश कल्पना प्रतीति में आती है इसलिये अनेक भी कह देते हैं वास्तव में अखण्ड देश एक ही है।
दूसरा लक्षणाभास तथा दृष्टान्ताभास ४५७-५८-५९ जात्र प्रयोजकं स्याग्जियतनिजाभोगदेशमात्रत्वम् ।
तदनन्यथात्वसिद्धौ सदनेक क्षत्रतः कथं रयाद्वा ।।४५७॥ अर्थ - जिस सत् का निश्चित जितना अपना उपभोग देश (निज प्रदेश ) हैं। वह सदा उतना ही रहता है अतः वही उसके क्षेत्र से एकत्व का प्रयोजक हो, सो यह बात भी नहीं है क्योंकि इस प्रकार यदि क्षेत्र की अपेक्षा सत् का एकत्व माना जायेगा तो वह उपभोग क्षेत्र तो बदलता नहीं हैं सबका सदा एकसा रहता है तो क्षेत्र की अपेक्षा अनेक कैसे सिद्ध होगा। अतः उपभोग देश की अपेक्षा क्षेत्र का एकत्व सिद्ध करना उचित नहीं है।
भावार्थ - यहाँ आकाश क्षेत्र की बात नहीं है किन्तु एक द्रव्य के जितने निज प्रदेश हैं वहीं उसका उपभोग क्षेत्र है। धर्म-अधर्म आत्मा के असंख्यात् प्रदेश आत्मा का उपभोग क्षेत्र है। परमाणु तथा कालाणु का एक प्रदेश उपभोग क्षेत्र है। आकाश का अनन्तप्रदेश उपभोग क्षेत्र है। उपभोग क्षेत्र से भाव यह है कि बह द्रव्य अपना भोग सुख-दुःख या अपने गुणों का परिणमन रूप कार्य अपने में ही भोगता है। उसका वह उपभोग संपूर्ण क्षेत्र में एक है, अखण्ड है। अतः शंकाकार कहता है कि क्योंकि हर एक द्रव्य का उपभोग क्षेत्र नियत है। अतः इस कारण से द्रव्य, क्षेत्र की अपेक्षा एक है। आचार्य कहते हैं कि ठीक है। हम तेरी बात मानने को तैयार हैं क्योंकि जैसा त करता है. है भी ऐसा ही