________________
१९४
अथ ले त्रिधा प्रदेशाः क्वचिन्निरंशैकदेशमात्रं सत् । क्वचिदपि च पुनरसंख्यदेशमयं पुनरनन्तदेशवपुः || ४५० ॥
अर्थ- वे प्रदेश तीन प्रकार हैं- कोई सत् निरंश (फिर जिसका खण्ड न हो सकें ऐसा ) एक देश मात्र है, कोई सत् असंख्यात् प्रदेश वाला है और कोई अनन्त प्रदेशमय भी है।
ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
भावार्थ - एक परमाणु अथवा एक काल-द्रव्य एक प्रदेश है। यहाँ पर प्रदेश से तात्पर्य परमाणु और काल- द्रव्य के आधारभूत आकाश का नहीं है किन्तु परमाणु और काल-द्रव्य के प्रदेश का है। दोनों ही द्रव्य एक प्रदेशी हैं। धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, एक जीव द्रव्य ये असंख्यात प्रदेशी हैं। आकाश अनन्त प्रदेशी है ।
शंका-समाधान
ननु च द्वयणुकादि यथा स्यादपि संख्यातदेशि सत्त्विति चेत् । शुद्धादेशैरुपचारस्याविवक्षितत्वाद्वा ॥ ४५१ ॥
न
यतः
शंका- जिस प्रकार एक प्रदेश, असंख्यात प्रदेश और अनन्त प्रदेश वाले द्रव्य बतलाये गये हैं, उस प्रकार संख्यात प्रदेशी द्रव्य भी बतलाना चाहिये और ऐसे द्रव्य द्वि-अणुक, त्रि-अणुक आदि पुद्गल स्कंध हो सकते हैं। उन्हें क्यों छोड़ दिया गया ? परन्तु उपर्युक्त आशंका ठीक नहीं है क्योंकि यहाँ शुद्ध द्रव्यों का कथन है। उपचरित द्रव्यों का कथन नहीं है।
भावार्थ - संख्यात प्रदेशी कोई द्रव्य नहीं है किन्तु कई पुद्गल द्रव्यों के मेल से होने वाला स्कन्ध है। वह यहाँ पर विवक्षित नहीं है। परमाणु और काल-द्रव्य को संख्यात् प्रदेश नहीं कहा गया है किन्तु निरंश एक देश मात्र कहा गया है। जैनधर्म में संख्या दो प्रदेश से प्रारम्भ होती है एक को अप्रदेशी कहते हैं।
अयमर्थः सद्द्वेधा यथैकदेशीत्यनेकदेशीति ।
एकमनेकं च स्यात्प्रत्येकं तनयद्वयान्नुयात् ॥ ४५२ ॥
अर्थ तात्पर्य यह है कि सत् के दो भेद है ( १ ) एक प्रदेशी ( २ ) अनेक प्रदेशी । इन दोनों में प्रत्येक ही दो नयों की विवक्षा से एक और अनेक रूप हैं।
भावार्थ इस श्लोक द्वारा प्रदेशों के भेद तीन के स्थान में दो ही बतलाये गये हैं और असंख्यात् तथा अनन्त प्रदेश अनेक में गर्भित किये गये हैं। जो एक प्रदेशी है वह द्रव्य भी नय सामान्य की अपेक्षा से एक और नय विशेष की अपेक्षा से अनेक है। इसी प्रकार अनेक प्रदेशी द्रव्य भी नय सामान्य की अपेक्षा से एक और नय विशेष की अपेक्षा से अनेक है। क्षेत्र एकत्व का गुर (लक्षण)
अथ यस्य यदा यावद्यदेकदेशे यथा स्थितं सदिति ।
-
अब सत् क्षेत्र की अपेक्षा एक कैसे हैं, इसे बताते हैं -
अर्थ जिस समय जिस द्रव्य के एक देश में जितना, जो, जैसे, सत् यह स्थित है, उसी समय उस द्रव्य के सब देशों में भी उतना वही सत्, वैसे ही, समुदित स्थित है। [ कालाणु और शुद्ध पुद्गल परमाणु के छः कोण माने गये हैं। उनमें छः कौण की अपेक्षा यह लक्षण घटित कर लेना चाहिये और उसी अपेक्षा से इनमें क्षेत्र की अपेक्षा अनेकत्व भी सिद्ध होगा। यह सूत्र क्षेत्र एकत्व लक्षण का करणधार प्राण है इसे खासतौर पर ध्यान रखना चाहिये अन्यथा अगले लक्षणाभास ख्याल में नहीं आयेंगे। लक्षणाभास का विषय बहुत जटिल है। बड़े-बड़े विद्वानों को समझ नहीं पड़ता। हमने बहुत प्रयत्न और सावधानता से स्पष्ट किया है आप ध्यान से पढ़ें ]।
-
तत्तावत्तस्य तदा तथा समुदितं च सर्वदेशेषु ॥ ४५३ ॥
-
इत्यनवद्यमिदं स्याल्लक्षणमुद्देशि तस्य तत्र यथा ।
क्षेत्रेणावण्डित्वात् सदेकमित्यत्र नयविभागोऽयम् ॥ ४५४ ॥
अर्थ इस प्रकार उस सत् का यह निर्दोष लक्षण क्षेत्र की अपेक्षा से कहा गया। क्योंकि वह क्षेत्र की अपेक्षा अखण्डित है इसलिये सत् एक है। यही क्षेत्र एकत्व विवक्षा में नय विभाग है।