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. प्रथम खण्ड/द्वितीय पुस्तक
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"द्रव्य की अपेक्षा एक' का सार (१) जिस प्रकार अनेक दवाइयों की एक गोली बनाली जाती है, वहाँ एक-एक दवाई की सत्ता भिन्न-भिन्न है और गोली अनेकहेतुक एक सत्तावाली है, उस प्रकार शंकाकार दवाईवत् एक-एक गुण और एक-एक पर्याय की भिन्नभिन सत्ता मानकर - गोलीबत उनके समदाय को द्रव्य की एक सत्ता मानता है अर्थात् अनेकहेतक एक सत्ता मानता है। अथवा(२)जिस प्रकार गोरस में घी अंश का सत् जुदा है। पानी अंश का सत् जदा है और दोनों सत् का मिलकर
रस सत अनेक हेतक एक है उस प्रकार प्रत्येक गुण और प्रत्येक पर्याय भिन्न-भिन्न है और वे मिलकर अनेकहेतुक एक सत् द्रव्य है अथवा (३) जिस प्रकार अनेकहेतुक एक अंध सुवर्ण पाषाण पत्थर में सोना अंश जुदा है, पत्थर अंश जुदा है। वे इस प्रकार मिले हुये है कि कभी जुदा नहीं होंगे, उस प्रकार गुणपर्याय भिन्न-भिन्न सत्ता बाले मिलकर इस प्रकार एक सत् बना है कि कभी भिन्न नहीं होगा। इस प्रकार सत् अनेकहेतु एक है अथवा (४)जिस प्रकार दर्पण और छाया मिलकर एक पदार्थ हैं उस प्रकार गुण और पर्याय मिलकर एक सत् पदार्थ है। इस प्रकार अनेक हेतुक एक है क्या ? उपर्युक्त चार दृष्टान्तों अनुसार शंकाकार अनेकहेतुक एक सत् मानता है।सो उसके उत्तर में ग्रन्थकार ने समझाया है कि सत् उपर्युक्त दृष्टान्तों अनुसार अनेकहेतुक एक नहीं है किन्तु वह स्वतः सिद्ध एक है जैसे आम का फल। इस पर फिर शंकाकार ने कहा तो क्या सर्वधा एक ही है ? उसके उत्तर में आचार्य कहते हैं कि जिस प्रकार अनेक सत्ताओं के कारण अनेकता तू कहता है वह अनेकता तो सर्वथा नहीं है पर कथंचित् प्रतीति के अनुसार अनेकता है। अब यह
वश्यकता है कि वह प्रतीति के अनुसार अनेकता क्या वस्त है। लीजिये समझाये देता है। देखिये आम एक है। वह एक ही कहा जाता है और एक रूप से ही उसका प्रयोग भी होता है पर क्या वह आम हरा है या पीला तो आप तान्त आँख से काम लेकर कहेंगे पीला है। अच्छा फिर आपसे पूछा जाये कि वह आम कड़ा है या नरम तो आप हाथ से छूकर कहेंगे कि नरम। अच्छा फिर आपसे पूछते हैं कि आम सुंगधित है या दुर्गधित तो आप तुरन्त सूंघकर कहेंगे कि सुगंधित। फिर हम पूछते हैं कि अच्छा अब यह और बताओ कि वह खट्टा है या मीठा तो आप तुरन्त जीभ पर रखकर खा जायेंगे और कहेंगे कि मीठा है। देखिये वे चारों चीज भिन्न-भिन्न आपकी प्रतीति ( अनुभव) में आई या नहीं,अवश्य आई। जभी तो आपने भिन्न-भिन्न उत्तर दे दिये। इसी को प्रतीति से अनेकता कहते है। अच्छा अब ऐसा करो कि रूप तो तुम ले लो और रस हमें दे दो। गंध राम को दे दो स्पर्श श्याम को दे दो तो आप कहेंगे कि यह तो नहीं हो सकता। भिन्न-भिन्न प्रदेश थोड़ा ही है जो ऐसा हो जाय, बस भाई इसी को कहते हैं कि अनेक नहीं है अथवा सर्वथा अनेक नहीं हैं। इसी प्रकार कपड़े का दृष्टान्त है। कपड़ा भी रूपादि गुण और तन्तु आदि प्रदेशों का तन्मय पिण्ड एक है। बस भाई यही रहस्य यहाँ सत् की एकता में समझना है कि जगत् का प्रत्येक सत् स्वत: सिद्ध एक है यह द्रव्य से एकत्व है। यद्यपि प्रतीति के अनुसार उसमें अनेकत्ता भी है पर वह वास्तव में एक ही है। निश्चय से एक ही है।
क्षेत्र से एक ४४९ से ४७० तक क्षेत्रं प्रदेश इति वा सदधिष्ठानं च भूनिवासश्च ।
तदपि स्वयं सदेव स्यादपि यावन्न सत्प्रदेशस्थम् || gue || ____अर्थ - क्षेत्र कहो, प्रदेश कहो, सत् का आधार कहो, सतू की पृथ्वी कहो, सत् का निवास कहो,ये सब पर्यायवाची हैं परन्तु ये सब सत् स्वरूप ही हैं। ऐसा नहीं है कि सत् कोई दूसरा पदार्थ हो और क्षेत्र दूसरा हो, उस क्षेत्र में सत् रहता हो किन्तु सत् और उसके प्रदेश दोनों एक ही बात है। सत् का क्षेत्र स्वयं सत् का स्वरूप ही है।
भावार्थ - जिन आकाश के प्रदेशों में सत्-पदार्थ ठहरा हो, उनको सत् का क्षेत्र नहीं कहते हैं। उस क्षेत्र में तो और भी अनेक द्रव्य हैं। किन्तु जिन अपने प्रदेशों से सत् ने अपना स्वरूप पाया है, वे ही सत् के प्रदेश कहे जाते हैं अर्थात् जितने निज द्रव्य के प्रदेशों में सत् है वही उस द्रव्य का क्षेत्र है।
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*जिस प्रकार शंकाकार गुणपर्यायों को भिन-भिन मानता है, व्यवहार नय भी उसी प्रकार भिन-भिन्न निरूपण करता है। इसलिये व्यवहार नय को भी ज्ञानियों ने अभूतार्थ कहा है। हाँ, वह अभेद को समझा देता है, पकड़ा देता है, इतना प्रयोजन उससे अवश्य सिद्ध होता है। अतः भेद काम निकालने की चीज है। आश्रय करने की नहीं है। आश्रय करने योग्य तो अभेद एक ही है जो निश्चय कहता है यह सवंत्र ध्यान रखने की आवश्यकता है। इसका संकेत यहाँ सर्वप्रथम श्लोक ४३६ में कर आये हैं। विशेषता के लिये अवश्य आगे देखिये न.६२६ से १४४ तक।