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प्रथम खण्ड/द्वितीय पुस्तक
गोरस से पुकारते हैं, वैसे सत् में कुछ गुण अंश हों, कुछ पर्याय अंश हों। उनके सम्मेलन से सत् हो ऐसा एकत्व नहीं है । ( भैंस या गाय के थनों से निकलने वाले दूध को गोरस कहते हैं )।
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भिन्नता है परन्तु
भावार्थ- जैसे गोरस में कई पदार्थों की के कारण एक गोरस की ही सत्ता कही जाती है, वैसे गुणपर्याय रूप कई पदार्थों की सत्ता मिलकर सत् एक नहीं कहा जाता है किन्तु एक सत्ता होने से वह एक कहा जाता है।
दूसरा लक्षणाभास तथा दृष्टांताभास
अपि यदशक्यविवेचनमिह न स्याद्वा प्रयोजकं यस्मात् । क्वचिदश्मनि
अर्थ अथवा ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि यद्यपि सत् में गुणपर्यायों की भिन्न-भिन्न सत्तायें हैं परन्तु उनका भिन्न-भिन्न विवेचन ( टुकड़ा) नहीं किया जा सकता है, इसलिये सत् को एक अथवा एक सत्तावाला कह दिया जाता है जैसे कि स्वर्णपाषाण में स्वर्ण और पाषाण दो पदार्थ हैं परन्तु उनका भिन्न-भिन्न विवेचन ( टुकड़ा) अशक्य है इसलिये उसे एक ही पत्थर के नाम से पुकारा जाता है। ऐसा कहने से जिस प्रकार कनकोपल स्वर्ण पाषाण में द्वैतभाव है, उसी प्रकार सत् में भी द्वैतभाव सिद्ध होगा परन्तु स्वर्ण पाषाण में जिस प्रकार भिन्न-भिन्न दो पदार्थ हैं उस प्रकार सत् में गुण और पर्याय दो भिन्न-भिन्न पदार्थ नहीं है। सत् वास्तव में एक सत्तावाला एक ही है।
तद्भावान्माभूत्कनकोपलद्वयाद्वैतम् ॥ ४४१ ॥
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तस्माटेकत्वम्प्रति प्रयोजकं स्यादरवण्डवस्तुत्वम् ।
प्रकृतं यथा सदेकं द्रव्येणाखण्डितं मर्त तावत् ॥ ४४२ ॥
अर्थ इसलिये एकत्व सिद्ध करने के लिये न तो भिन्न र अनेक सत्ताओं का सम्मेलन ही प्रयोजक है और न अशक्य विवेचन ही एकत्व का प्रयोजक है किन्तु अखण्ड वस्तुत्व ही उसका प्रयोजक है अर्थात् जो अखण्ड प्रदेशीएक सत्तात्मक पदार्थ है वही एक है । प्रकृत में द्रव्य की अपेक्षा से ऐसा ही अखण्ड प्रदेशी एकत्व सत् में माना गया है ।
शंका ४४३-४४४ दो इकट्ठे
ननु यदि सदेव तत्त्वं स्वयं गुणः पर्ययः स्वयं सदिति । स्यादन्यतरस्तदितरलोपस्य
शेषः
दुर्निवारत्वात् ॥ ४४३ ॥
शंका- यदि स्वयं सत् ही द्रव्य है, स्वयं ही गुण है, स्वयं ही पर्याय है तो एक शेष रहना चाहिये अर्थात् जब द्रव्यगुण-पर्याय तीनों एक ही हैं तो तीनों में से कोई एक कहा जा सकता है। बाकी के दोनों का लोप होना अवश्यंभावी है क्योंकि ऊपर आपने अनेकता का निषेध तो किया ही है।
शंका चालू - तीसरा लक्षणाभास तथा दृष्टांताभास
न च भवति तथावश्यम्भावात्तत्समुदयस्य निर्देशात् । तस्मादनवद्यमिदं छायादर्शतदनेकहेतुः स्यात् ॥ ४४४ ॥
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अर्थ परन्तु वैसा होता नहीं है अर्थात् कोई दो का लोप होता नहीं है क्योंकि इनके समुदाय का निर्देश किया गया है अर्थात् आगम में गुणपर्यायों के समुदाय को ही द्रव्य कहा गया है इसलिये द्रव्य गुणपर्याय तीनों का कहना ही आवश्यक प्रतीत होता है। इसलिये यह बात निर्दोष सिद्ध होती है कि सत्, छाया और दर्पण के समान अनेक हेतुक एक है ( अनेकों का मिलकर बना हुआ एक है जैसे दर्पण और छाया मिलकर एक पदार्थ है ) ।
भावार्थ ४४३-४४४ - यदि द्रव्य, गुण, पर्याय तीनों एक ही बात है तब तो एक शेष रहना चाहिये। दो का लोप हो जाना चाहिए यदि तीनों ही तीन बातें हैं तो अवश्य ही सत् को अनेक हेतुक सिद्ध करती हैं और अनेक हेतुक होने से सत् अनेकों के मिलाप से एक सिद्ध होता है। जैसे दर्पण और छाया मिलकर एक पदार्थ है वैसे गुणपर्याय मिलकर एक सत् है क्या ?