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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
नहीं है और उभय कहना भी ठीक नहीं है, अनुभय कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि सर्वथा एकान्तरूप से एक अनेक सत् अप्रमाण ही है।
मोट - पहले ४३६ से ४१२ तक एक सिद्ध करेंगे फिर ४९३ से ४९८ तक अनेक सिद्ध करेंगे। फिर ४९९ में यह कहेंगे कि उभय-अनुभय आदि शेष भंग रूप पूर्ववत् जान लेना। ५०० में एक अनेक की परस्पर सापेक्षता कहेंगे। ५०१ और ५०२ से सर्वथा निरपेक्ष एक अनेक पक्ष का खण्डन करेंगे।
सत् एक युलि अथ तथा सदेकं स्यादविभिन्नप्रदेशवत्वाद्वा।
गुणपर्यायांशैरपि निरंशदेशादरवण्डसामान्यात् ।। ४३६|| अर्थ - गुण पर्याय रूप अंशों का अभिन्न प्रदेशी होने से सत् एक है अर्थात् क्योंकि वह निरंश देश है इसलिये अखण्ड सामान्य की अपेक्षा से सत् एक है।
भावार्थ - द्रव्य में गुण पर्यायें इसी प्रकार हैं जिस प्रकार कि जल में कल्लोलें होती हैं। जिस प्रकार जल से कल्लोलों की सत्ता भिन्न नहीं है उसी प्रकार द्रव्य से गुण पर्यायों की सत्ता भी भिन्न नहीं है। केवल विवक्षा से द्रव्य, गुण, पर्यायों की कल्पना की जाती है। शुद्ध दृष्टि से जो द्रव्य है सोई गुण पर्याय है। जो गुण है सोई द्रव्य पर्याय है अथवा जो पर्याय है सोई द्रव्य गुण है। इसलिये जब तीनों एक ही हैं तो न उनकी भिन्न सत्ता है और न उनके भिन्न प्रदेश ही हैं। तथा शुद्ध दृष्टि से न उनमें अंश कल्पना ही है किन्तु निरंश अखण्ड देशात्मक एक ही सत् है।
इसी का स्पष्टीकरण द्रव्येण क्षेत्रेण च कालेनापीह चाथ भावेन ।
सदरखण्ड जियमादिति यथाधुना वक्ष्यते हि तल्लक्ष्म || ४३७ ॥ अर्थ - द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव की अपेक्षा से नियम से सत् अखण्ड है। अब इन चारों की अपेक्षा से ही सत् में अखण्डता क्रम से सिद्ध की जाती है।
सामान्य कथन समाप्त हुआ।
द्रव्य से एक ४३८ से ४४८ तक गुणपर्ययवद्रव्यं तद्गुणपर्ययवपुः सटेकं स्यात् ।
नहि किंचिगुणरूपं पर्ययरूपं च किञ्चिदशांशैः।। ४३८॥ अर्थ - गुणपर्यायबाला द्रव्य है अर्थात् गुणपर्याय ही द्रव्य का शरीर है (गुणपर्याय स्वरूप ही द्रव्य है) इसलिये सत् एक है। ऐसा नहीं है कि वृक्ष में फल-फूल-पत्तों की तरह उसके कुछ अंश तो गुणरूप हों, कुछ पर्याय रूप हों।
रूपादितन्तुमानिह यथा पटः स्यात्स्वयं हि तद्वैलम् ।
नहि किञ्चिदरूपमयं तन्तुमयं स्यात्तदंशगर्भाशैः ॥ ४३९॥ अर्थ - जैसे कि पट रूपादिवाला और तन्तुवाला होता है। इसलिये वह स्वयं उन दोनों रूप है। परन्तु ऐसा नहीं है कि पट में कुछ अंश तो रूपमय हों और कुछ अंश तन्तुमय हों ( किन्तु रूप-तन्तु-पट तीनों एक ही पदार्थ है। केवल विवक्षा से उसमें द्वैतभाव है।
पहला लक्षणाभास तथा दृष्टान्ताभास न पुनर्गोरसवदिदं नानासत्त्वैकसत्तसामान्यम् ।
सम्मिलितावस्थायामपि घृतरूपं च जलमयं किञ्चित् ॥ ४४०॥ अर्थ - सत् में जो एकत्त्व है वह गोरस के समान अनेक सत्ताओं के सम्मेलन से एक समान्य सत्त्वरूप नहीं है। जैसे गोरस दुग्धादि की मिली हुई अवस्था में कुछ घृतभाग है और कुछ जलभाग है परन्तु सम्मेलन होने के कारण उन्हें एक