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प्रथम खण्ड/द्वितीय पुस्तक
नोत्पद्यते न नश्यति धुवमिति सत्रयादनन्यथावृत्तेः।
व्यवहारान्तर्भूतो नयः स नित्योऽप्यनन्यशरण: स्यात् ॥ ७६१॥ अर्थ - अन्यथा भाव न होने से अर्थात् एक स्वभाव रूप रहने से सत् न तो उत्पन्न होता है और न नष्ट ही होता है। वह धुव (नित्य है) यह अनन्यशरण (स्वपक्ष नियत) एक नित्य नय है जो व्यवहार नय के अन्तर्गत है। भावार्थ - नित्य पर्यायार्थिक नय से ऐसा कहा जाता है कि सत् ध्रुव एक रूप ही रहता है। वह उत्पाद व्यय नहीं करता।
न विनश्यति वस्तु यथा तथा जैव उत्पद्यते नियमात् ।
स्थितिमेति न केवलमिह भवति स लिश्चयनयस्य पक्षश्च ॥ ७६२ ॥ अर्थ - जिस प्रकार वस्तु नष्ट नहीं होती है, उसी प्रकार वह नियम से उत्पन भी नहीं होती है, तथा ध्रुव भी नहीं है क्योंकि वह अखण्ड है। (यह निषेधात्मक कथन-अनिर्वचनीय कथन) शुद्ध निश्चय नय का पक्ष है। यह पदार्थ में भेद स्वीकार नहीं करती।
भावार्थ - उत्पाद-व्यय-धौव्य तीनों ही एक समय में होनेवाली सत की पर्यायें हैं। इसलिये इन पर्यायों को पर्यायार्थिक नय विषय करता है, परन्त शुद्ध निश्चय नय सर्व भेदों से रहित अखण्ड वस्तु को विषय करता है।
यदिदं नास्ति विशेषैः सामान्यस्य विवक्षया तदिदम् ।
उन्मज्जसामान्यैररित लदेललामामाविशेषाम् ॥ अर्थ - यह जो (वस्तु) सामान्य (नित्य) की विवक्षा में विशेष रूप से (अनित्यपने से) नहीं है वहीं विशेष (अनित्य ) की विवक्षा होने पर सामान्य ( नित्य ) से नहीं है। यह जो नित्य है वही अनित्य है। इस प्रकार दोनों को सामान्य रूप से विषय करना-किसी को मुख्य गौण किये बिना यह प्रमाण का पक्ष है (नित्य का पर्यायवाची सामान्य शब्द है। अनित्य का पर्यायवाची विशेष शब्द है क्योंकि विशेष की उत्पत्ति उत्पाद व्यय से होती है।
भावार्थ ७६० से ७६३ तक - विशेष नाम पर्याय का है। पर्याय अनित्य होती है। इसलिये विशेष की अपेक्षा से वस्तु अनित्य है। सामान्य की अपेक्षा वह नित्य भी है। ये दोनों व्यवहार पक्ष हैं। न नित्य-न अनित्य = अखण्ड अनिर्वचनीय- यह शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का पक्ष है। शुद्ध अर्थात् अखण्ड। एक ही समय में मैत्री रूप से नित्यानित्यात्मक है यह प्रमाण का पक्ष है। चारोंश्लोक इकट्ठे हैं। इस अधिकार में जो नित्य-अनित्य का निरूपण किया गया है, उस पर इन चार पद्यों द्वारा नय प्रमाण लगाकर दिखाये हैं।
नोट - इस अधिकार की प्रश्नावली अन्त में दी है।
चौथा अवान्तर अधिकार एक अनेक का निरूपण ४३४ से ५०२ तक
शंका ननु चैकं सदिति स्न्यास्किमकं स्यादयोभयं चैतत् ।
अनुभयमिति किं तत्त्वं शेषं पूर्वग्दथान्यथा किमिति ॥ ३४ ॥ शंका - क्या सत् एक है या अनेक है अथवा यह उभय है या अनुभव है अथवा पहले के समान शेष भंग रूप है या अन्य प्रकार है?
समाधान सत्यं सदेकमिति वा सटनेक चोभयं च नययोगात् ।
न च सर्वथा सदेकं सटनेकं वा सटप्रमाणत्वात् ॥३५॥ अर्थ - ठीक है। सत् नय दृष्टि से एक भी है, अनेक भी है, उभय भी है और अनुभव भी है, परन्तु यह बात नय विवक्षा से ही बनती है। नय अपेक्षा को छोड़कर सर्वथा सत् को एक कहना भी ठीक नहीं है, अनेक कहना भी ठीक