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________________ १०८ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी अपि यत्सत्तन्नित्यं तत्साधनमिह यथा तदेवेदम् । तद्भिज्ञानसमक्षात् क्षणिकैकान्तस्य बाधकं च स्यात् ॥ ४३२ ॥ अर्थ- चौधे श्लोक में ऐसी प्रतीति भी होती है जोकि क्षणिक एकान्त की सर्वथा बाधक है। वह प्रतीति इस प्रकार है जो सत् है वह नित्य है जैसे यह वहीं वस्तु है जिसे पहले हमने देखा था ऐसा प्रत्यभिज्ञान प्रत्यभिज्ञान प्रतीति यथार्थ है क्योंकि उससे लोक व्यवहार चलता है। प्रत्यभिज्ञान की यथार्थता से पदार्थ भी नित्य सिद्ध हो जाता है। बिना कथंचित् नित्यता के पदार्थ में प्रत्यभिज्ञान प्रतीति होती ही नहीं और यह प्रतीति क्षणिक एकान्त की बाधक है। नित्य- अनित्य की परस्पर सापेक्षता क्षणिकैकान्तवदित्यपि नित्यैकान्ते न तत्त्वसिद्धिः स्यात् । तरमान्न्यायागतमिति नित्यानित्यात्मकं स्वतस्तत्त्वम् ॥ ४३३ ॥ अर्थ- जिस प्रकार क्षणिककान्त से पदार्थ की सिद्धि नहीं होती है उसी प्रकार नित्य एकान्त से भी पदार्थ की सिद्धि नहीं होती है। इसलिये यह बात न्याय से सिद्ध हुई कि पदार्थ कथंचित् नित्य है और कथंचित् अनित्य भी है अर्थात् नित्यानित्यात्मक है अर्थात् नित्य- अनित्य दोनों धर्मं परस्पर सापेक्ष हैं। अविरोध रूप से मित्रवत् एक ही प्रदेशों में रहते हैं । भावार्थ- जैसे सर्वथा क्षणिक असिद्ध है वैसे सर्वथा नित्य भी असिद्ध है क्योंकि प्रत्यभिज्ञान जैसे सर्वथा अनित्य में नहीं हो सकता है। वैसे वह सर्वथा नित्य में भी नहीं हो सकता है। इसका कारण भी यह है कि प्रत्यभिज्ञान में पूर्व और वर्तमान ऐसी दो प्रकार की प्रतीति होती है। सर्वथा नित्य में वैसी प्रतीति नहीं हो सकती है। इसलिये पदार्थ नित्यानित्यात्मक ही युक्ति, अनुभव और आगम से सुसिद्ध है अर्थात् पदार्थ में नित्य-अनित्य दोनों परस्पर की सापेक्षता से रहते हैं। शेष विधि पूर्ववत् (१) जैसे अस्ति नास्ति युगल द्रव्य से क्षेत्र से काल से और भाव से लगाया था वैसे इस नित्य-अनित्य युगल को भी द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव से लगा लेना चाहिये। इसका मर्म यह है कि नित्य दृष्टि से द्रव्य का चतुष्टय त्रिकाल एक रूप है और अनित्य दृष्टि से द्रव्य का चतुष्टय समय-समय का भिन्न-भिन्न रूप है । ( २ ) जिस प्रकार अस्तिनास्ति को दो द्रव्यों पर न लगाकर सामान्य विशेष पर लगाया था, उसी प्रकार नित्य- अनित्य को भी दो द्रव्यों पर न लगाक़र एक ही द्रव्य के समान्य विशेष पर लगाना चाहिये । (३) जिस प्रकार अस्ति नास्ति सात भंग रूप था, उसी प्रकार यह नित्य- अनित्य भी सात भंग रूप समझ लेना चाहिये। यह पहले कहे हुए विधिरूप सूत्रों के आधार से लिखा गया है। नोट- 'वस्तु की अनेकान्तात्मक स्थिति नामा महा अधिकार में नित्य - अनित्य युगल का वर्णन करने वाला तीसरा अवान्तर अधिकार समाप्त हुआ। सद्गुरु देव की जय । नित्य- अनित्य पर नय प्रमाण लगाने की पद्धति ७६० से ७६३ तक * उत्पद्यते विनश्यति सदिति यथास्वं प्रतिक्षणं यावत् । व्यवहारविशिष्टोऽयं नियतमलित्यो नयः प्रसिद्ध स्यात् ॥ ७६० ॥ अर्थ सत् पदार्थ प्रतिक्षण अपने आप उत्पन्न होता है और नाश होता है, यह नियम से प्रसिद्ध अनित्य नय है जो व्यवहार नय का एक भेद है। भावार्थ - अनित्य पर्यायार्थिक नय से ऐसा कहा जाता है कि सत् प्रति समय उत्पन्न होता है और नाश होता है। अनित्य है। * यह श्लोक इसी ग्रन्थ के प्रथम भाग के अन्त में है। भावार्थ के लिए अन्त में दृष्टि परिज्ञान देखिये ।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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