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________________ ! 4 प्रथम खण्ड / द्वितीय पुस्तक सिद्धान्त पक्ष का समर्थन दृष्टान्ताभासा इति निक्षिप्ताः स्वेष्टसाध्यशून्यत्वात् । लक्ष्योन्मुरवेषव इव दृष्टान्तास्त्वथ यथा प्रशस्यन्ते ॥ ४१० ॥ अर्थ - इस प्रकार पूर्व में जितने भी दृष्टान्त दिये गये हैं वे अपने साध्य की सिद्धि कराने में समर्थ नहीं हैं अतः दृष्टान्ताभास हैं । किन्तु जो दृष्टान्त लक्ष्य के अनुकूल बाणों के समान अपने साध्य की सिद्धि कराने में समर्थ हैं वे प्रशंसनीय माने गये हैं ॥ ४१० ॥ पहला साधक दृष्टान्तं सत्परिणामाद्वैतं स्यादविभिन्न प्रदेशवत्वाद्वै । सत्परिणमद्वैतं स्यादवि दीपप्रकाशयोरेव ॥ ४११ ॥ अर्थ - (१) सत् परिणाम के भिन्न प्रदेश नहीं है किन्तु अभिन्न हैं इसलिये उन दोनों में द्वैतभाव नहीं है किन्तु दोनों एक ही अद्वैत है । ( २ ) तथा कथंचित् सत् और परिणाम में द्वैत भी है। सत् स्थायी है परिणाम क्षणिक है। इसलिये भिन्नता है । ( ३ ) सत् और परिणाम में भिन्नता अभिन्नता ऐसी ही है जैसी कि दीप और प्रकाश में होती है। दीप और प्रकाश के प्रदेश अभिन्न हैं इसलिये तो अभिन्नता है। दीप स्थायी है और प्रकाश समय-समय का नया नया है इसलिये भिन्नता भी है। १०३ दूसरा साधक दृष्टांत अथवा जलकल्लोलवदद्वैतं द्वैतमपि च तद्द्वैतम् । निमज्जन्त्राप्युन्मज्जन्निमज्जदेवेति ॥ ४१२ ॥ उन्मज्जच्च अर्थं अथवा सत् परिणाम में जल और उसकी तरंगों के समान कथंचित् भिन्नता और अभिन्नता है। जल में पहले एक तरंग उछलती है शान्त होती है, फिर दूसरी उछलती है शान्त होती है, फिर तीसरी उछलती है शान्त होती है, जल सदा एक रूप बना रहता है। इन तरंगों के प्रवाह से प्रतीत होती हैं कि समय-समय की तरंगें भिन्न हैं और चिरस्थायी जल भिन्न है। इस प्रकार तो जल कल्लोलों में भिन्नता है ( २ ) दूसरी दृष्टि से विचार किया जाय तो न कोई तरंग उछलती है और न कोई शान्त होती है केवल जल ही जल है क्योंकि जल और तरंगों के देश भिन्न नहीं है एक ही है। इस अपेक्षा जल और कल्लोलों में अभिन्नता है । ( ३ ) इसी प्रकार सत् में जो एक समय का परिणाम है वह दूसरे समय में नहीं है। जो दूसरे समय में है वह तीसरे समय में नहीं है। सत् ज्यों का त्यों बना रहता है। इस प्रकार तो सत् और परिणाम में भिन्नता प्रतीत होती है किन्तु जब प्रदेशों पर दृष्टि देते हैं तो सत् और परिणाम के प्रदेश अभिन्न हैं इसलिये सत् परिणाम एक भी है। विवक्षाधीन भिन्नता और अभिन्नता की सिद्धि है। - तीसरा साधक दृष्टान्त घटमृत्तिकयोरिव वा द्वैतं तद्वैतवदद्वैनम् । नित्यं मृण्मात्रलया यदनित्यं घटत्वमात्रतया ॥ ४१३ ॥ अर्थ अथवा सत् परिणाम में घट और मिट्टी के समान द्वैतभाव और अद्वैतभाव है। मृत्तिका रूप से तो उस पदार्थ में नित्यता आती है और घटरूप पर्याय की अपेक्षा से उसी में अनित्यता आती है। उसी प्रकार द्रव्य दृष्टि से सत् कहा जाता है और पर्याय दृष्टि से परिणाम कहा जाता है। सत् और परिणाम की अपेक्षा से तो भिन्न-भिन्न हैं किन्तु प्रदेश एक होने से अभिन्न हैं । उपरोक्त तीन दृष्टान्तों का सार एक जीव मनुष्य है। अब बतलाइये कि वह जीव उस मनुष्य दशा से भिन्न है या अभिन्न देखिये जीवत्व स्वभाव तो उसमें त्रिकाल स्थायी है। अनादि से है अनन्त काल तक रहेगा। उसमें कभी हानि वृद्धि नहीं होती और मनुष्य एक पर्याय है, दशा है, क्षणिक है, नाश होने वाली वस्तु है । कहाँ त्रिकाली चीज कहाँ एक समय की चीज । इस अपेक्षा तो सत् और परिणाम में भिन्नता है। द्वैतभाव है। अब दूसरी दृष्टि से देखिये ! मनुष्य पर्याय रूप ( शरीर नहीं आत्मा ) उस जीव का ही तो परिणमन है। परिणमन स्वभाव के कारण ही तो वह स्वयं मनुष्य रूप परिणत हुआ है। जो जीव
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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