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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
से द्रव्य में योग्यता रूप से अवस्थित हैं और एक के बाद एक इस क्रम से उत्पन्न होती रहती हैं और विनशती रहती हैं। यदि कोई समझे कि पूर्व पर्याय का नाश कर नवीन पर्याय का उत्पाद होता है सो यह बात नहीं है। किन्तु प्रत्येक पर्याय एक क्षणवर्ती होती है यह उनका स्वभाव है। पर्याय पर्याय में से नहीं आती किन्तु द्रव्य में से आती है । द्रव्य का प्रति समय किसी एक शकल में रहना इसी का नाम पर्याय है। इसलिये यह निष्कर्ष निकलता है कि सत् और परिणाम शत्रुद्वैत के समान नहीं हैं। इन्हें शत्रुद्वैत के समान मानने पर जो दोष आते हैं वे मूल में दिये ही हैं ।। ४०५-४०६ ॥
रज्जुयुग्म भी दृष्टान्ताभास है
लोक दिन चेह दृष्टान्तः । बाधितविषयत्वाद्वा दोषात् कालात्ययापदिष्टत्वात् ॥ ४०७ ॥ तद्वाक्यमुपादानकारणसदृशं हि कार्यमेकत्वात् । अस्त्यनतिगोरसत्वं दधिदुग्धावस्थयोर्यथाध्यक्षात् ॥ ४०८11
अर्थ - प्रकृत में दाएँ और बाएँ हाथ में रहनेवाली दो रस्सियों का दृष्टान्त भी युक्त नहीं है, क्योंकि यह बाधित विषय है इसलिये कालात्ययापदिष्ट दोष आता है ॥ ४०७ ॥ प्रकृत में खुलासा इस प्रकार है कि कथंचित् अभेद होने से प्रत्येक कार्य अपने उपादान कारण के समान होता है। उदारणार्थ दही और दूध इन दोनों अवस्थाओं में गोरसपने का उल्लंघन नहीं पाया जाता यह बात प्रत्यक्ष से ही सिद्ध है ॥ ४०८ ॥
विशेषार्थ यहाँ सत् और परिणाम की सिद्धि में दाएँ और बाएँ हाथ में रहनेवाली दो रस्सियों को दृष्टान्त रूप से उपस्थित किया गया है। दाएँ और बाएँ हाथ में रहनेवाली दो रस्सियाँ जिस प्रकार दही का मन्थन कर छाछ तैयार करती हैं उसी प्रकार क्या सत् और परिणाम हैं यह शंकाकार के पूछने का आशय है। इस द्वारा शंकाकार ने सत् और परिणाम को निमित्त कारण रूप से ध्वनित किया है। किन्तु शंकाकार का यह कहना समीचीन नहीं है, क्योंकि हम देखते हैं कि प्रत्येक कार्य अपने उपादान के अनुरूप होता है। क्योंकि कार्य कारण से कथंचित् अभिन्न होता है। उदाहरणार्थं दही और दूध ये दोनों कार्य हैं जो गोरसमय हैं। इन्हें गोरस से जुदा नहीं समझा जा सकता है। इसलिये सत् और परिणाम को रज्जु युग्म के दृष्टान्त द्वारा कार्य से भिन्न सिद्ध करना प्रत्यक्ष से बाधित है और ऐसा नियम है कि जो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बांधित होता है वह कालात्ययापदिष्ट दोष विशिष्ट माना जाता है। यही सबब है कि दाएँ और बाएँ हाथ में रहनेवाली दो रस्सियों को सत् और परिणाम को सिद्धि में उपयोगी नहीं माना गया है ॥ ४०७ ४०८ ॥ सत् और परिणाम को सर्वथा नित्य मानने में दोष
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अथ
चेदनादिसिद्धं
कृतकत्वापह्नवात्तदेवेह |
तदपि न तद्द्वैतं किल त्यक्तदोषास्पदं यदत्रैतत् ॥ ४०९ ॥
अर्थ - अब यदि इन दोषों से बचने के लिए यह माना जाय कि सत् और परिणाम अनादिसिद्ध हैं क्योंकि वे किसी के कार्य नहीं हैं। उनमें 'यह वही है ' ऐसी प्रतीति होती है सो ऐसा मानने पर भी सत् और परिणाम ये दोनों सब दोषों से रहित सिद्ध नहीं होते ॥ ४०९ ॥
विशेषार्थं सत् और परिणाम क्या हैं इस विषय में पहले शंकाकार ने अनेक दृष्टान्त दिये हैं और ग्रन्थकार ने अनेक युक्तियों द्वारा उनका निराकरण कर सिद्धान्तपक्ष प्रस्तुत किया है। फिर भी सर्वथा नित्यवादी इस कथन से सन्तुष्ट न होकर यह जिज्ञासा प्रकट करता है कि सत् और परिणाम का कोई कार्य नहीं दिखाई देने से उन्हें अनादिनिधन क्यों न माना जाय और ऐसा मानना असमीचीन भी नहीं है, क्योंकि उनमें यह वही है' इस प्रकार की प्रतीति भी होती है। इस पर ग्रन्थकार का जो कुछ कहना है उसका भाव यह है कि सत् और परिणाम को सर्वथा नित्य मानने में भी अनेक दोष आते हैं इसलिये यह मान्यता भी समीचीन नहीं हैं। सर्वथा नित्यपक्ष के मानने में जो दोष आते हैं उनका निर्देश आगे किया ही है इसलिये यहाँ नहीं करते हैं ॥ ४०९ ॥
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