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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
वाच्य-वाचक भी दृष्टान्ताभास है वागर्थद्वयमिति वा दृष्टान्तो न स्तसाधनायालम् । घट इति वर्णदतात् कम्बुग्रीतादिमानिहारत्यपरः ।। ३९६ ॥ यटि वा निःसारतया वानोवार्थः समस्यते सिद्भयै ।।
न तथापीष्टसिद्धिः शब्दवदर्थस्याप्यनित्यत्वात ॥ ३९७॥ अर्थ - सत् और परिणाम के विषय में जो वचन और अर्थ इन दोनों का दुष्टान्त दिया गया है सो यह भी अपने साध्य की सिद्धि करने में समर्थ नहीं है, क्योंकि घट'इन दो वर्गों से कम्बुग्रीवा आदि वाला पदार्थ । यदि उक्त प्रकार से यह दृष्टान्त नि:सार होने से इष्ट की सिद्धि के लिये वचन और अर्थ इन दोनों में'वाग एवं अर्थ:' ऐसा समास किया जाता है सो ऐसा समास करने पर भी इष्ट की सिद्धि नहीं होती है, क्योंकि ऐसा मानने पर शब्द के समान अर्थ भी अनित्य प्राप्त होता है | ३९७ ॥
विशेषार्थ - यहाँ उक्त दृष्टान्त के विषय में दो प्रकार से विचार किया गया है भेद पक्ष और अभेद पक्ष । किन्त इन दोनों दृष्टियों से प्रकृत दृष्टान्त उपयोगी नहीं है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। विशेष खुलासा मूल से ही हो जाता है।३९-११७...
भेरी-दण्ड भी दृष्टान्ताभास है। स्यादविचारितरम्या भेरीदण्डनदिहेति संदृष्टिः । पक्षाधर्मत्वेऽपि च व्याप्यासिद्धत्वदोषदुष्टत्तात् ॥ ३९८ ॥ युतसिद्भत्वं स्यादिति सत्परिणामद्वयस्य यदि पक्षः ।
एकस्यापि न सिद्धिर्यदि वा सर्वोsपि सर्वधर्म: स्यात् ॥ ३९९ ॥ अर्थ - प्रकृत में भेरीदण्ड का दृष्टान्त भी अविचारितरम्य है, क्योंकि पक्ष धर्म का अभाव होने से यह व्याप्यासिद्ध दोष से दूषित है ॥ ३१८॥ सत् और परिणाम ये दोनों युतसिद्ध हैं यदि यह पक्ष स्वीकार किया जाता है तो एक की भी सिद्धि नहीं होती है। अथवा ऐसा मानने पर सब पदार्थ सब धर्मवाले सिद्ध हो जाते हैं ॥ ३९९ ।। _ विशेषार्थ - भेरी और दण्ड जिस प्रकार संयुक्त होकर कार्यकारी हैं ऐसे सत् और परिणाम नहीं हैं क्योंकि उनका परस्पर में तादात्म्य सम्बन्ध है, इसलिये भेरी-दण्ड के समान सत्परिणाम की सिद्धि करने पर व्याप्यासिद्ध दोष आता है। कदाचित् भेरी-दण्ड के समान सत् परिणाम को भी युतसिद्ध माना जाता है तो किसी की भी सिद्धि नहीं हो सकती। अथवा इस तरह सभी पदार्थ युतसिद्ध हो जायेंगे जिससे कौन किसका धर्म है और कौन किसका धर्मी है यह भेद नहीं किया जा सकेगा। सब पदार्थ सब धर्मवाले सिद्ध हो जायेंगे। इसलिए प्रकृत में भेरी-दण्ड का दृष्टान्त उपयोगी नहीं है यह उक्त कथन का सार है ॥ ३९८-३९९॥
अपूर्ण न्याय भी दृष्टान्ताभास है। इह पदपूर्णन्यायादस्ति परीक्षाक्षमो न दृष्टान्तः । अविशेषत्वापत्तौ द्वैताभावस्य दुनितारत्तात् ॥ ४० ॥ अपि चाज्यतरेण विना यथेष्टसिद्धिस्तथा तदितरेण ।
भवतु विनापि च सिद्धिः स्याटेवं कारणााभावश्च || ४०१॥ अर्थ - सत् और परिणाम के विषय में पदपूर्ण न्याय का दृष्टान्त भी परीक्षा के योग्य नहीं है, क्योंकि इसमें दोनों में अविशेषता की आपत्ति प्राप्त होने से द्वैत का अभाव दुर्निवार हो जाता है 11४००। दूसरे ऐसा मानने पर जिस प्रकार किसी एक के बिना इष्ट की सिद्धि हो जाती है उसी प्रकार उससे भिन्न चाहिये और ऐसा मानने पर कार्यकारणभाव का अभाव हो जाता है ।। ४०१॥
विशेषार्थ - पदपूर्ण न्याय में किसी एक पद के देने से काम चल जाता है। दोनों की आवश्यकता नहीं पड़ती। यदि ऐसा सत् और परिणाम को माना जाता है तो दो में से कोई एक ही शेष रहेगा, दोनों नहीं। किन्तु वस्तुस्थिति ऐसी