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प्रथम खण्ड / द्वितीय पुस्तक
शेज नहीं रहता, इलातिर सिद्धान्त रूप से यहां कहा जा सकता है कि एतन्मात्र ही वस्तु है। इससे ये अंशात्मक भले ही सिद्ध हो जाय पर वस्तु का इनसे अलग स्वतंत्र अस्तित्व नहीं यह निर्विवाद है ।। ३८५-३८८ ।। बीजांकुर भी दृष्टान्ताभास है
नाप्युपयोगी क्वचिदपि बीजाङ्कुरवदिहेति दृष्टान्तः । स्वावसरे स्वावसरे पूर्वापरभावभावित्वात् ॥ ३८९ ॥ बीजावसरे नाकुर इव बीजं नाकुरक्षणे हि यथा ।
न
सत्परिणामद्वैतस्य
तदेककालत्वात् ॥ ३२० ॥
च
सदभावे परिणामो भवति 외 सत्ताक आश्रयाभावात् । दीपाभावे हि यथा तत्क्षणमिव दृश्यते प्रकाशो न ॥ ३९१ ॥ परिणामाभावेऽवि सदिति नालम्बते हि सत्तान्ताम् । रस यथा प्रकाशनाशे प्रदीपनाशोऽप्यवश्यमध्यक्षात् ॥ ३९२ ॥ अपि च क्षणभेटः किल भवतु यदीष्टसिद्धिरजायासात् । सापि न यतस्तथा सति सतो विनाशोऽसतश्च सर्गः स्यात् ॥ ३९३ ॥
अर्थ सत् और परिणाम के विषय में बीज और अङ्कुर का दृष्टान्त भी उपयोगी नहीं है, क्योंकि बीज अपने समय
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में होता है और अङ्कुर अपने समय में होता है। ये दोनों पूर्वापर काल में होते हैं इसलिए इनका एक काल में सद्भाव मानना युक्त नहीं है ॥ ३८९ ॥ जिस प्रकार बीज के समय में अंकुर नहीं होता है और अंकुर के समय में बीज नहीं होता है उस प्रकार सत् और परिणाम की बात नहीं है, क्योंकि ये दोनों एक समय में पाये जाते हैं || ३९० ॥ जिस प्रकार दीपक का अभाव होने पर उसी समय आश्रय के बिना प्रकाश दिखाई नहीं देता है उसी प्रकार सत् के अभाव में आश्रय का अभाव हो जाने से परिणाम का भी सद्भाव नहीं हो सकता है ॥ ३९९ ॥ प्रत्यक्ष से हम देखते हैं कि जिस प्रकार प्रकाश का नाश होने पर प्रदीप का नाश अवश्य हो जाता है उसी प्रकार परिणाम का अभाव होने पर सत् का अस्तित्व ही नहीं रह सकता है ।। ३९२ ॥ यदि कहा जाय कि काल भेद मान लेने पर बिना प्रयत्न के इष्ट सिद्धि हो जायेगी सो इस प्रकार से इष्ट की सिद्धि मानना ठीक नहीं है, क्योंकि सत् और परिणाम में काल भेद मानने पर सत् का विनाश और असत् का उत्पाद प्राप्त होता है ॥ ३९३ ॥
तथा
विशेषार्थ - बीज और अंकुर में जैसा समय भेद है वैसा समय भेद सत् और परिणाम में नहीं है अतः प्रकृत में यह दृष्टान्त भी उपयोगी नहीं है यह उक्त कथन का सार है।
कनकोपल भी दृष्टान्ताभास है
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कनकोपलवदिहैष: क्षमते न परीक्षितः क्षणं स्थातुम् । गुणगुणिभावाभावाद्यतः
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स्वयमसिद्धदोषात्मा ॥ ३२४ ॥ कनकोपलद्वयोरेव ।
हेयादेयविचारो ਸਕਰਿ हि तदनेकद्रव्यत्वान्न स्यात्साध्ये
लटेकद्रव्यत्वात् ॥ ३९५ ॥
अर्थ- सत् और परिणाम के विषय में कनकोपल का दृष्टान्त भी परीक्षा करने पर क्षणमात्र नहीं ठहर सकता क्योंकि कनकोपल में गुण-गुणी भाव नहीं, इसलिये यह स्वयं असिद्ध दोष से युक्त है ।। ३९४ ॥ कनक और पाषाण इन दोनों में कौन हेय है और कौन उपादेय है यह विचार होता है, क्योंकि ये दोनों स्वतंत्र द्रव्य हैं। किन्तु यह विचार साध्य में उपयुक्त नहीं है, क्योंकि सत् और परिणाम रूप साध्य एक द्रव्य है ॥ ३९५ ॥
विशेषार्थ प्रकृत में सत्परिणामात्मक वस्तु साध्य है, अतः इसकी सिद्धि में मिले हुए कनक पाषाण रूप दो द्रव्यों
को दृष्टान्त रूप से उपस्थित करना युक्त नहीं है यह उक्त कथन का सार है। कनक और पाषाण ये दो द्रव्य हैं फिर भला यह दृष्टान्त सत्परिणामात्मक वस्तु का समर्थक कैसे हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता। इसी से इस दृष्टान्त को असिद्ध कहा है ।। ३९४-३९५ ॥