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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
छठे दृष्टान्त में दोषदर्शन आमानामविशिष्टं पृथिवीत्वं नेह भवति दृष्टान्तः । कमवर्तित्वादुभयोः रतेतरपक्षद्वयस्य घालित्तात् ॥ ३७६ ॥ परपक्षतधस्तावत् क्रमवर्तित्वाच्च स्वतः प्रतिज्ञायाः । असमर्थसाधनत्वात् स्वयमपि वा बाधकः स्वपक्षस्य ॥ ३७७॥ तत्साध्यमलिय वा यदि वा नित्यं निर्सगतो वस्तु ।
स्यादिह पृथिवीत्ततया नित्यमनित्यं ापक्वपक्वतया ॥ ३७८ ।। अर्थ- सत् और परिणाम के विषय में कच्ची और पक्की मिट्टी भी दृष्टान्त नहीं हो सकती है क्योंकि कच्ची और पक्की मिट्टी क्रम से होती है, इसलिए यह दृष्टान्त उभय पक्ष का घातक है ॥ ३७६ ॥ शंकाकार ने इस दृष्टान्त द्वारा जो प्रतिज्ञा की है वह स्वभावतः क्रमवर्तित्व की समर्थक है, इसलिए तो इससे पर पक्ष का घात हो जाता है और यह असमर्थ साधन है, इसलिए यह स्वयं स्वपक्ष का भी बाथक है ।।३७७॥क्योंकि शंकाकार के मन में जो भी वस्तु साध्य होगी वह स्वभावत: या तो अनित्य वस्तु साध्य होगी या नित्य वस्तु साध्य होगी। किन्तु प्रकृत में वस्तु स्वभाव से पृथिवी सामान्य की अपेक्षा नित्य मानी गई है और अपक्व धर्म की अपेक्षा अनित्य मानी गई है ॥ ३७८५
विशेषार्थ - शंकाकार की प्रतिज्ञा यह है कि सत् और परिणाम स्वतन्त्र दो हैं और सिद्धान्त पक्ष यह है कि सत् और परिणाम दीप और प्रकाश के समान तादात्म्य को प्राप्त हैं। अब यदि सत् और परिणाम को कच्ची और पक्की मिट्टी के समान बतलाया जाता है तो यह दृष्टान्त दोनों पक्षों का घातक हो जाता है। कच्ची और पक्की मिट्टी क्रम से होनेवाली एक मिट्ठी द्रव्य की दो अवस्थाएँ हैं किन्तु सत् और परिणाम ऐसे नहीं हैं इसलिए तो यह दृष्टान्त पर पक्ष अर्थात् सिद्धान्त पक्ष का घातक हो जाता है और इससे शंकाकार की प्रतिज्ञा की सिद्धि नहीं होती, क्योंकि शंकाकार सत् और परिणाम को स्वतन्त्र दो सिद्ध करना चाहता है पर इस दृष्टान्त से वे स्वतन्त्र दो सिद्ध न होकर एक वस्तु की कम से होनेवाली दो अवस्थाएँ सिद्ध होती हैं, इसलिए शंकाकार के द्वारा उपस्थित किये गये पक्ष का बाधक हो जाता है।शंकाकार का साध्य या तो अनित्य वस्तु हो सकती है या नित्य, पर वस्तु को सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य मानने पर अनेक दोष आते हैं, इसलिए पृथिवी सामान्य की अपेक्षा जैसे पृथिवी नित्य सिद्ध होती है और अपक्व, पक्व धर्म की अपेक्षा जैसे वह अनित्य सिद्ध होती है उसी प्रकार प्रकृत्त में जान लेना चाहिये ।। ३७६-३७८॥ .
सातवें दृष्टान्त में दोषदर्शन अपि च पत्लीयुग्मं स्यादिति हास्यास्पदोपमा दृष्टिः । इह यटसिद्धविरुद्धानेकान्तिकदोषदुष्टत्वात् ॥ ३७९ ॥ माता मे वन्ध्या स्यादित्यादिवदपि विरुद्धवावयत्तातु 1
कृतकत्वादिति हेलोः क्षणिकैकान्तात्कृतं विचारतया ॥ ३८० ॥ अर्थ - सत् और परिणाम के विषय में सपत्नीयुग्म यह दृष्टान्त भी हास्यास्पद के समान है, क्योंकि प्रकृत में इस दृष्टान्त के मानने पर असिद्ध विरुद्ध और अनैकान्तिक ये तीनों दोष आते है ॥३७९॥ 'मेरी माता बाँझ है' इत्यादि के समान तो इसमें विरुद्धवाक्यता है। तथा कृतकत्व हेतु के बल से अनैकान्तिक और क्षणिकैकान्त के बल से असिद्ध दोष आता है इसलिये इसका विचार करना व्यर्थ ॥ ३८०॥
विशेषार्थ - यहाँ सपत्नीयुग्म के दृष्टान्त को आधार बनाकर तीन दोष दिये गये हैं - असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिका क्षणिकैकान्त हेतु के बल से तो असिद्ध दोष दिया गया है। कतकत्व हेतु के बल से अनैकान्तिक दोष दिया गया है और मेरी माता बांझ है इत्यादि वचनों के समान विरुद्ध वचन बतला कर विरुद्ध दोष दिया गया है।
सब पदार्थ अनित्य हैं, सर्वथा क्षणिक होने से, सपत्नी युग्म के समान। इस अनुमान में जैसे असिद्ध दोष आता है उसी प्राकर सत् और परिणाम को सपत्नी युग्म के समान सिद्ध करना असिद्ध है।
घट और पट सर्वथा भिन्न हैं, कार्य होने से, सपत्नी युग्म के समान। इस अनुमान में अनैकान्तिक दोष आता है, क्योंकि कृतकत्व हेतु जैसे घट और पट के भिन्नत्व का सूचक है उसी प्रकार वह तन्तु और पट के अभिन्नत्व का भी