SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम खण्ड / द्वितीय पुस्तक ९५ के विचार करने में क्या लाभ है अर्थात् कोई लाभ नहीं ॥ ३६९ ॥ यदि दोनों धर्मों के भिन्न रहने पर भी युतसिद्ध होने से धर्म धर्मी भाव की निष्पत्ति मानी जाती है तो सब पदार्थों का सब पदार्थों के साथ सम्बन्ध होने के कारण सब पदार्थों का सब रूप होना दुर्निवार हो जायेगा ॥ ३७० ॥ अब यदि द्रव्य से दोनों धर्म अभिन्न हैं यह नय पक्ष स्वीकार किया जाता है तो क्या यह अभिन्नता रूप और पट के समान मानी जाती है या क्षार द्रव्य के समान मानी जाती है । ३७९ ॥ यदि यह अभिन्नता क्षार द्रव्य के समान मानी जाती है तो प्रकृत में यह गाह्य नहीं है, क्योंकि क्षार द्रव्य परस्पर में निरपेक्ष हैं, इसलिये वर्ण पंक्ति के दृष्टान्त से इस दृष्टान्त में कोई विशेषता नहीं आती। इस न्याय से नय और प्रमाण ये कुछ भी नहीं ठहरते ॥ ३७२ ॥ यदि सत् और परिणाम की अन्वय (वस्तु) से अभिन्नता रूप और पट के समान मानी जाती हैं तो प्रकृत के अनुकूल होने से यह मानना ठीक ठहरता है, अतः एक वस्तु दो नामों से अंकित है यह पक्ष अपने आप विपक्ष रूप हो जाता है ॥ ३७३ ॥ विशेषार्थ अग्नि और वैश्वानर ये एक वस्तु के दो नाम हैं, अतः इस दृष्टान्त से इष्ट की सिद्धि नहीं होती, क्योंकि वस्तु सत्परिणामात्मक है। किन्तु इस दृष्टान्त द्वारा इसकी सिद्धि नहीं होती, इसलिये यह दृष्टान्त साध्य से विरुद्ध की सिद्धि करने वाला होने के कारण साध्य शून्य हो जाता है। आगे इसी विषय का विशेष खुलासा करने के लिए दो शंकाएँ उपस्थित करके उनका जो खुलासा किया गया है, वह इस प्रकार है - - ( १ ) क्या सत्तू और परिणाम ये एक ही वस्तु के दो नाम दो धर्मों की उपेक्षा करके रखे गये हैं ? या ( २ ) सत् और परिणाम ये एक ही वस्तु के दो नाम दो धर्मो की अपेक्षा करके रखे गये हैं। प्रथम पक्ष तो इसलिए ठीक नहीं है क्योंकि इससे धर्मी का अभाव प्राप्त होता है। दूसरा पक्ष स्वीकार करने पर यह प्रश्न खड़ा होता है कि वे दोनों धर्म धर्मी से भिन्न हैं कि अभिन्न । यदि धर्मी से धर्मों को भिन्न माना जाता है तो धर्मी और धर्म दोनों का अभाव प्राप्त होता है । यदि अभिन्न पक्ष स्वीकार किया जाता है तो यह अभिन्नता संयोगजन्य है या तादात्म्य रूप है। ऐसा नय प्रश्न खड़ा होता है। संयोगजन्य अभिन्नता तो बन नहीं सकती, क्योंकि धर्म धर्मी में ऐसी अभिन्नता किसी ने नहीं स्वीकार की है । अब यदि तादात्म्य रूप अभिन्नता स्वीकार की जाती है तो ऐसी अभिन्नता के स्वीकार करने में कोई हानि नहीं, क्योंकि स्याद्वादियों ने सत् और परिणाम का तादात्म्य सम्बन्ध ही स्वीकार किया है। पर इससे शंकाकार का यह पक्ष कि 'सत् और परिसएम एक ही वस्तु के दो नाम है ' नहीं रहता, वह स्वयं विपक्षभूत हो जाने के कारण खण्डित हो जाता है यह उक्त कथन का तात्पर्य है ॥ ३६७-३७३ ॥ सव्येतर गोविषाण भी दृष्टान्ताभास है अपि चाकिश्चित्कर इव सव्येतरगोविषाणदृष्टान्तः | सुरभि गगनारविन्दमिवाश्रयासिद्धदृष्टान्तात् ॥ ३७४ ॥ न यतः पृथगिति किञ्चित् सत्परिणामातिरिक्तमिह वस्तु | दीपप्रकाशयोरिह गुम्फितमिव तद्द्वयोरैक्यात् ॥ ३७५ ॥ अर्थ पहले जो सत् और परिणाम के विषय में दाएँ और बाएं सींगों का दृष्टान्त दे आये हैं सो वह दृष्टान्त भी प्रकृत में अकिंचित्कर ही है, क्योंकि आकाश कमल सुगन्धित है इसके समान यह दृष्टान्त आश्रयासिद्ध है ॥ ३७४ ॥ यह दृष्टान्त आश्रयासिद्ध इसलिए है क्योंकि सत् और परिणाम के अतिरिक्त स्वतन्त्र कोई वस्तु नहीं है। किन्तु जिस प्रकार दीप और प्रकाश में अभेद होने से वे गुम्फित होते हैं उसी प्रकार सत् और परिणाम में ऐक्य होने से वे परस्पर में तादात्म्य को प्राप्त है ॥ ३७५ ॥ - विशेषार्थं - गाय के दाएँ और बाएँ सींग ये गाय के आश्रय से रहते हैं । अब यदि सत् और परिणाम को दाएँ और बाएँ सींगों के समान माना जाता है तो सत् और परिणाम का एक अन्य आश्रय मानना पड़ेगा । यतः सत् और परिणाम का अन्य आश्रय नहीं है, किन्तु वे दीप और प्रकाश के समान परस्पर गुम्फित हैं। अतः सत् और परिणाम की सिद्धि के लिये दाएँ और बाएँ सींगों का दिया गया दृष्टान्त' आकाशकमल सुरभि है' इसके समान आश्रयासिद्ध है, इसलिये यह दृष्टान्त साध्य की सिद्धि करने में समर्थ नहीं है यह उक्त कथन का तात्पर्य है ॥ ३७४-३७५ ।।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy