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________________ प्रथम खण्ड/द्वितीय पुस्तक समर्थक है। इस प्रकार कृतकत्व इस हेतु के बल से प्रकृत में जैसे अनैकान्तिक दोष आता है उसी प्रकार प्रकृत हेतु के बल से सत् और परिणाम को सपत्नी युग्म के समान सिद्ध करना अनैकान्तिक है। तीसरा विरुद्ध दोष है। सो इसकी सिद्धि में कोई हेतु नहीं दिया गया है किन्तु जैसे यह कहना कि 'मेरी माता बांझ है' विरुद्ध वचन है उसी प्रकार सत् और परिणाम को सपत्नी युग्म के समान सिद्ध करना भी विरुद्ध वचन है यह कह कर उक्त दोष का समर्थन किया गया है। तात्पर्य यह है सत् और परिणाम ये सपत्नी युग्म के समान न तो काल क्रम से ही उत्पन्न होते हैं न स्वतन्त्र हैं और न वैपरांत्य भाव से ही रहते हैं अतः उनके समधन में सबको युग्म का दृष्टान्त देना विरुद्ध वचन है। इस प्रकार सपली युग्म के दृष्टान्त में असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक तीनों दोष आते हैं इसलिये इसका विचार करना ही व्यर्थ है यह उक्त कथन का तात्पर्य है ॥३७९-३८०॥ आठवें दृष्टान्त में दोष दर्शन तद्वज्ज्येष्ठकनिष्ठमातृद्वैतं विरुद्धदृष्टान्तः । धर्मिणि' चासति तत्त्वे तथाश्रयासिद्भदोषत्वात् ॥ ३८१॥ अपि कोऽपि परायत्तः सोऽपि परः सर्वथा परायत्तात । सोऽपि परायत्तः स्यादित्यनवरथाप्रसङटोषश्च ॥ ३८२ ।। अर्थ - जिस प्रकार पिछले दृष्टान्त अनेक दोषों से दूषित बतला आये हैं उसी प्रकार सत् और परिणाम के विषय में बड़े और छोटे भाई को दृष्टान्त रूप से प्रस्तुत करना भी विरुद्ध है। दूसरे इससे धर्मी का अभाव सिद्ध होता है इसलिये आश्रयासिद्ध दोष आता है ||३८१।। तीसरे इसके मानने से अनवस्था दोष भी आता है, क्योंकि इनमें से जो कोई पराधीन होगा यह पर भी पराधीन ही होगा और इस प्रकार उत्तरोत्तर पराधीनता के प्राप्त होने से अनवस्था दोष आता है॥ ३८२ ।। विशेषार्थ - बड़े और छोटे भाई क्रम से होते हैं किन्तु सत् और परिणाम इस प्रकार क्रम से नहीं होते। वादी और प्रतिवादी दोनों को उनका युगपत् सद्भाव इष्ट है, इसलिये तो यह दृष्टान्त विरुद्ध है। दूसरे सत् और परिणाम को यदि बड़े और छोटे भाई के समान माना जाता है तो जिस प्रकार बड़े और छोटे भाई ये माता-पिता के आश्रय से उत्पन्न होते हैं इस प्रकार इनका कोई स्वतंत्र आश्रय प्राप्त न होने से आश्रयासिद्ध दोष आता है। तीसरे इस दृष्टान्त के आधार से अनवस्था दोष भी आता है, क्योंकि जिस प्रकार बड़े और छोटे भाई की उत्पत्ति उनके माता-पिता के आधीन है और माता-पिता की उत्पत्ति उनके माता-पिता के आधीन है। इस प्रकार सत् और परिणाम के मानने पर अनवस्था दोष आता है। अब यदि इन दोषों से बचना है तो सत् और परिणाम को बड़े और छोटे भाई के समान मानना उचित नहीं है यह उक्त कथन का सार है ॥३८१-३८२॥ सुन्दोपसुन्द भी दृष्टान्ताभास है सुन्दोपसुन्दमल्लद्वैतं दृष्टान्ततः प्रतिज्ञातम् । तदसटसत्तापत्तेरितरेतरनियतटोषत्वात् || ३८३॥ सत्युपसुन्दे सुन्दो भवति च सुन्टे किलोपसुन्दोऽपि । एकस्यापि न सिद्धिः क्रियाफलं वा तदात्ममुरबदोषात् ॥ २८ ॥ अर्थ - तथा जहाँ जो सुन्द और उपसुन्द इन दो पल्लों का दृष्टान्त दिया गया है सो वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि इससे इतरेतर दोष आता है जिससे सत् और परिणाम का अभाव प्राप्त होता है। ३८३ उपसन्द के होने पर सुन्द की सिद्धि होती है और सुन्द के होने पर उपसुन्द की सिद्धि होती है। इसप्रकार अन्योन्याश्रय दोष के आने से किसी एक की सिद्धि नहीं होती और न कार्य ही बनता है ।।३८४।। (१)ख पुस्तके 'सति चार्मिणि' इति पाठः । (२) प्रतिषु इमौ श्लोकौ व्युत्क्रमेण बर्तेते क.ख. पुस्तकयो: इमौ ४०७,४०८ क्रमांकभ्यां निबद्धते।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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