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________________ 1 प्रथम खण्ड/ द्वितीय पुस्तक क्या वे परत्वापरत्व तथा दिशाओं के समान हैं सुटिङ - परात्किमथ | पूर्वापरदिग्द्वैतं यथा तथा द्वैतमिदमपेक्षतया ॥ ३४९ ॥ अर्थ अथवा सत् और परिणाम इन दोनों में केवल उपचार से परत्वापरत्व व्यवहार होता है क्या । अथवा जिस प्रकार अपेक्षा मात्र से पूर्व दिशा और पश्चिम दिशा ये दोनों कही जाती हैं उसी प्रकार ये दोनों हैं क्या ॥ ३४९ ॥ क्या वे कारक द्वैत के समान हैं। ९१ किमथाधाराधेयन्यायादिह कारकादिद्वैतभित्र । स यथा घटे जलं स्यान्ज स्थादिह जले घटः कश्चित् ॥ ३५० ॥ अर्थ - अथवा आधार-आधेय न्याय से इन दोनों में कारक आदि द्वैत घटित होता है। क्या ! जैसे 'घट में जल है' यहाँ आधार-आधेयभाव है, किन्तु 'जल में घट है' यहाँ वह नहीं है ॥ ३५० ॥ क्या वे बीजांकुर के समान हैं अथ किं बीजाङ्कुरवत्कारणकार्यद्वयं यथास्ति तथा । स यथा योनीभूतं तत्रैकं योनिजं तदन्यतरम् ॥ ३५१ ॥ अर्थ - अथवा जिस प्रकार बीज और अंकुर में कारण-कार्यभाव है उसी प्रकार सत् और परिणाम में भी क्या कारण-कार्यभाव है। जैसे कि बीज और अंकुर में एक कारण है, और दूसरा कार्य है, क्या वे ऐसे हैं ।। ३५१ ॥ क्या वे कनकोपल के समान हैं अथ किं कनकोपलवत् किञ्चित्स्वं किञ्चिदस्वमेव यतः । ग्राह्यं स्वं सारतया नदितरमस्वं तु हेयमसारतया ॥ ३५२ ॥ अर्थ अथवा सत् और परिणाम दोनों में कनक और पाषाण के समान एक स्वरूप हैं और दूसरी पररूप है और इस प्रकार साररूप होने से स्व ग्राह्य है और दूसरा पररूप असार होने से अग्राह्य है ।। ३५२ ॥ क्या वे वाच्य वाचक के समान हैं अथ किं वागर्थद्वयमिव सम्पृक्तं सदर्थसंसिद्ध्यै । पानकवत्तन्नियमादर्थाभिव्यञ्जकं द्वैतात् ॥ ३५३ ॥ अर्थ अथवा सत् और परिणाम ये दोनों अर्थसिद्धि के लिये वचन और अर्थ के समान संपृक्त होकर पेय पदार्थ के समान मिलकर नियम से अर्थ के अभिव्यञ्जक हैं क्या || ३५३ ॥ क्या वे भेरी दण्ड के समान हैं अथ किमवश्यतया तद्वक्तव्यं स्यादनन्यथासिद्धेः । भेरीदण्डवदुभयोः संयोगादिव विवक्षितः सिद्धयेत् ॥ ३५४ ॥ अर्थ - अथवा दोनों के बिना अर्थ सिद्धि नहीं होती, इसलिए सत् और परिणाम इन दोनों का कथन करना आवश्यक हैं, क्योंकि जिस प्रकार भेरी और दण्ड के संयोग से विवक्षित कार्य सिद्ध होता है उसी प्रकार क्या सत् और परिणाम के सम्बन्ध से पदार्थ की सिद्धि होती है ॥ ३५४ ॥ क्या वे पद पूर्णन्याय के समान हैं अथ किमुदासीनतया वक्तव्यं वा यथारुचित्यान्न । पद' पूर्णन्यायादप्यन्यतरेणेह साध्यसंसिद्धेः ॥ ३५५ ॥ अर्थ - अथवा सत् और परिणाम इनका कथन रुचिपूर्वक न करके उदासीनतापूर्वक किया जाता है; क्योंकि पदपूर्णन्याय के अनुसार इनमें से किसी एक के द्वारा ही साध्य की सिद्धि हो जाती है ।। ३५५ ॥ ९. 'ख' पुस्तके 'यदपूर्ण-' इति पाठः ।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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