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________________ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी अथ किं करवादिवर्णाः सन्ति यथा युगपदेव तुल्यतया । वक्ष्यन्ते क्रमतरते कमवर्तित्वाद् ध्वनेरिति न्यायात् ॥ ३४२॥ अर्थ - तो क्या ऐसा है कि जिस प्रकार क, ख आदि वर्ण एक साथ समानरूप से विद्यमान रहते हैं, परन्तु ध्वनि में क्रमवीपना पाया जाने से वे क्रम से बोले जाते हैं उसी प्रकार सत् और परिणाम एक साथ विद्यमान रहते हुए क्या क्रा से कहे जाते हैं ।। ३४२।। क्या वे विंध्य हिमाचल के समान हैं अथ किं रखरतरदृष्ट्या विन्ध्यहिमाचलयुगं यथास्ति तथा । भन्तु विवक्ष्यो मुख्यो विववतुरिछातशाद् गुणोऽन्यतरः ॥ ३३॥ अर्थ - अथवा ऐसा है जिस प्रकार कि देखने में विन्ध्याचल और हिमालय ये स्वतन्त्र दो हैं परन्तु दोनों में वक्ता । की इच्छानुसार जो विवक्षित होता है वह मुख्य हो जाता है और दूसरा गौण हो जाता है। उसी प्रकार क्या सत् और परिणाम स्वतन्त्र दो हैं और उन दोनों में जो विवक्षित होता है वह मुख्य हो जाता है और दूसरा गौण हो जाता है ॥३४३ ॥ क्या वे सिंह और साधु के समान हैं अथ चैकः कोऽपि यथा सिंहः साधुर्खितक्षितो द्वेधा । सत्परिणामोऽपि तथा भवति विशेषणविशेष्यवत् किमिति ॥ ३४४ ।। अर्थ-या ऐसा है कि जिस प्रकार कोई एक व्यक्ति कभी सिंह और कभी साधु दो तरह से विवक्षित होता है उसी प्रकार वस्तु कभी सत् और कभी परिणामस्वरूप से विवक्षित होती है। वस्तु का सत् और परिणाम के साथ क्या इस तरह का विशेषण-विशेष्य सम्बन्ध है ॥ २४४॥ क्या वे दोनों सन्येतर गोविषाणों के समान हैं अथ किमनेकार्थत्वादेकं भावद्वयाङ्कितं किञ्चित् ।। अग्निश्वानर इव सव्येतरगोविषाणवत् ॥ ३४५॥ अर्थ - या ऐसा है क्या कि जिस प्रकार एक ही पदार्थ नाना प्रयोजन होने से अग्नि और वैश्वानर के समान दो नामों से अंकित होता है उसी प्रकार सत् और परिणाम भी क्या नाना प्रयोजन होने से एक ही वस्तु के दो नाम हैं। या जिस प्रकार दाएँ और बाएँ सींग होते हैं उसी प्रकार क्या सत् और परिणाम हैं ॥ ३४५॥ क्या वे काल भेद से कच्ची-पक्की मिट्टी के समान हैं अथ किं कालविशेषादेकः पूर्व ततोऽपरः पश्चात् । आमानामविशिष्टं पृथितीत्वं तद्यथा तथा किमिति ॥ ३४६ ।। __ अर्थ - अथवा काल भेद से एक पहले और दूसरा पीछे होता है क्या। जिस प्रकार की कच्ची-पक्की मिट्टी आगेपीछे होती है उसी प्रकार ये सत् और परिणाम हैं क्या ।। ३४६ ।। क्या वे दो सपत्नियों के समान हैं अथ कि कालक्रमतोऽप्युत्पन्नं वर्तमानमिव चारित ।" भवति सपत्नीद्वयमिह यथा मिथः प्रत्यनीकतया ॥ ३४७॥ अर्थ- अथवा क्या कालक्रम से उत्पन्न होकर भी ये दोनों वर्तमान काल में परस्पर विरुद्ध भाव से रहते हैं। जैसे आगे-पीछे परणी हुई दो सपत्नियाँ वर्तमान काल में परस्पर विरुद्ध भाव से रहती हैं ॥ ३४७॥ क्या वे दो भाइयों या मल्लों के समान हैं अथ किं ज्येष्ठकनिष्ठमातृद्वयमिव मिथ: सपक्षतया । किमथोपसुन्ट सुन्दमल्लन्यायात्किलेतरेतररमात ॥२४८॥ अर्थ - अथवा बड़े और छोटे भाई के समान ये दोनों परस्पर अविरुद्ध भाव से एक साथ रहते हैं क्या। अथवा वे दोनों उपसन्द और सुन्द इन दोनों मल्लों के समान परस्पर के आश्रित हैं क्या ॥३४८॥
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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