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प्रथम खण्ड/द्वितीय पुस्तक
उभय अनुभय आदि शेष भंगों का समर्थन शेषविशेषाव्यानं ज्ञातव्यं चोक्तवक्ष्यमाणतया ।
सूत्रे पदानुवृत्तिानासूत्रान्तरादिति न्यायात् ॥ ३३५ ॥ अर्थ - अब इसन -अतद के विषय में गोजिरोष व्याख्यान करना शेष है सो जैसा पहले अस्ति-नास्ति युगल में कह आये हैं वह सब विधि तथा जैसी आगे नित्य-अनित्य युगल में कहेंगे वह सब विधि यहाँ भी लगा लेना क्योंकि ऐसा न्याय है कि सूत्र में पदों की अनुवृत्ति अन्य सूत्रों से ग्रहण कर लेनी चाहिये।
भावार्थ - (१) वस्तु एक समय में तत्-अतत् दोनों भावों से गूंथी हुई है। सारी की सारी वस्तु को तत् भाव या सदशपने से देखना अर्थात् वस्तु वही की वही है इस प्रकार देखना एक दृष्टि है।(२)अतत् भाव या विसदशपने से देखना अर्थात् वस्तु हर समय नई-नई है - इस प्रकार देखना यह दूसरी दृष्टि है। (३) दोनों धर्मों से परस्पर सापेक्ष देखना जैसे जोवही की वही है बह ही नई-नई है- यह तीसरी प्रमाण दुष्टि है।(४)तथा अखण्ड रूप से देखना जैसे न वही की वही है और न नई-नई है - अभेद्य है, अखण्ड है, अनिर्वचनीय है यह शुद्ध द्रव्यार्थिक या अनुभय दृष्टि है। (५) वस्तु में तत् स्वरूप भिन्न है, अतत् स्वरूप भिन्न है यह व्यस्त-जुदी-जुदी दृष्टि है। (६) वस्तु तत् अतत् दोनों रूप इकट्ठी है यह समस्त दृष्टि है। (७) वस्तु समय-समय में नई-नई उत्पन्न हो रही है यह क्रमवर्ती दृष्टि है। (८) वस्तु त्रिकाल वही की वही है यह अकमवर्ती दृष्टि है। यहाँ तक तो हमने ग्रंथकार की आज्ञानुसार आगे नित्य-अनित्य अधिकार में कहीहई विधिके अनसारलगाकर दिखलाया है। अब अस्ति-नास्ति अधिकार में कही हई दि बताते हैं। (९) जैसे अस्ति-नास्ति युगल द्रव्य से-क्षेत्र से-काल से और भाव से लगाया था वैसे इस तत्-अतत् को भी द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से लगा लेना चाहिये। इसका मर्म यह है कि तत् दृष्टि से द्रव्य का चतुष्टय त्रिकाल एक रूप है और अतत् दृष्टि से द्रव्य का चतुष्टय समय-समय का भिन्न-भिन्न रूप है। (१०)जिस प्रकार अस्ति-नास्ति को दो द्रव्यों पर न लगाकर सामान्य विशेष पर लगाया था, उसी प्रकार तत्-अतत् को भी दो द्रव्यों पर न लगाकर एक ही द्रव्य के समान्य विशेष पर लगाना चाहिये।(११) जिस प्रकार अस्ति-नास्ति सात भंग रूप था उसी प्रकार यह तत्-अतत् भी सात भंगरूपसमझ लेना चाहिए।ऐसी ग्रन्थकार की उपरोक्त सत्र की आज्ञा है। अन्त में दृष्टि परिज्ञान तथा सप्तभंगी विज्ञान देखिये।
नोट - इस प्रकार वस्तु की अनेकान्तात्मक स्थिति' नापा महा अधिकार में तत्-अतत् युगल का वर्णन करने वाला दूसरा अवान्तर अधिकार समाप्त हुआ। सद्गुरु देव की जय !
तत्-अतत् पर नय प्रमाण लगाने की पद्धति ७६४ से ७६७ तक* अभिनवभावपरिणतेयोऽयं वस्तुग्यपूर्वसमयो यः ।
इति यौ वदति स कश्चित्पर्यायार्थिकनयेष्वभावनयः ॥ ७६५ 11 अर्थ - वस्तु में नवीन भाव रूप परिणमन होने से ''यह तो वस्तु ही अपूर्व-अपूर्व है ऐसा जो कोई कहता है, वह पर्यायार्थिक नयों में अभाव नय-अतत् नय है ( अभाव और अतत् पर्यायवाची शब्द हैं)।
भावा) - अतत् दृष्टि से वस्तु ही प्रति समय नई-नई उत्पन्न होती है। यह अभाव नय या अतत् नय नाम की पर्यायार्थिक नय है।
परिणममानेऽपि तथा भूतैर्भावैर्विजश्यमानेऽपि ।
नायमपूर्वो भावः पर्यायार्थिकतिशिष्टभावनयः ॥ ७६५11 अर्थ - वस्तु के नवीन भावों से परिणमन करने पर भी तथा पूर्व भावों से विनष्ट होने पर भी-"यह अपूर्व (नई) वस्तु नहीं है - किन्तु वही की वही है" ऐसा जो कोई कथन करता है, वह पर्यायार्थिक नयों में भाव नय-तत् नय है (भाव-तत् पर्यायवाची शब्द है)1
भावार्थ - तत् दृष्टि से कोई वस्तु नई उत्पन्न नहीं होती है। वही की वही है। यह भाव नय या तत् नय नाम की पर्यायार्थिक नय है।
* यह श्लोक इसी ग्रन्थ के प्रथम भाग के अन्त में है। भावार्थ के लिए अन्त में दृष्टि परिज्ञान देखिये।