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________________ ग्रन्थराज श्रीपञ्चाध्यायी शुद्धद्रव्यादेशादभिनवभावो न सर्वतो वस्तुनि । नाप्यनभिनवश्च यतः स्यानभूतपूतों न भूतपर्वो वा ॥ GEE|| अर्थ - शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से ( अनुभय दृष्टि से ) वस्तु में सर्वथा नवीन भाव भी नहीं होता है तथा प्राचीन भाव का अभाव भी नहीं होता है क्योंकि इस नय की दृष्टि में वस्तु न तो अभूतपूर्व (नई) है और न भूतपूर्व (पुरानी) है। उभय रूप अर्थात् दोनों रूप नहीं है। किन्तु अनुभय रूप अर्थात् अखण्ड रूप है।यह दृष्टि भेद को स्वीकार नहीं करती। अभिनवभावैर्यदिदं परिणममानं प्रतिक्षणं यावत् । असदुत्पन्नं न हि तत्सन्जष्ट वा न प्रमाणमतमेतत् ॥ ७६७ ॥ अर्थ - जो सत प्रतिक्षण नवीन-नवीन भावों से परिणमन करता है, वही न तो असत उत्पन्न होता भावों से परिणमन करता है, वही न तो असत् उत्पन्न होता है और न सत् विनष्ट ही होता है, यह प्रमाण का मत है। भावार्थ - जो वस्तु परिणमन की अपेक्षा प्रात समय नई-नई दीखती है, वही वस्तु तो वस्तु की अपेक्षा वही की वही है। इस प्रकार अतत्-तत् ( अभाव-भाव ) दोनों धर्मों को मैत्री रूप से एक समय विषय करने वाला जोड़ रूप प्रमाण पक्ष है। भावार्थ ७६४ से ७६७ तक - परिणमन पर दृष्टि रखने वाले पर्यायार्थिक नय का कहना है कि प्रति समय वस्तु ही नई-नई उत्पन्न होती है,यह अतत् नाम का व्यवहार नय है। वस्तु पर दृष्टि रखने वाली पर्यायार्थिक नय कहता है कि वस्तु वहीं की वही है, यह तत् नाम की व्यवहार नय है क्योंकि दोनों की दृष्टि वस्तु के एक-एक अंश पर है: शुद्ध द्रव्यार्थिक नय कहता है - न नई है - न पुरानी है - निर्विकल्प है। अखण्ड है। प्रमाण कहता है कि जो नई-नई है, वह वही की वही है। ये चार पद इकट्ठे हैं। इस अधिकार में जो सत् को तत्-अतत् सिद्ध किया है, उस पर यह नय प्रमाण लगाकर दिखलाये हैं। नोट - इस अधिकार की प्रश्नावली अन्त में दी है। तीसरा अवान्तर अधिकार नित्य-अनित्य का रहस्य- द्रव्य जैसे स्वभाव से स्वतः सिद्ध है वैसे ही स्वभाव से वह स्वतः परिणामी भी है। अत: स्वतः सिद्ध स्वभाव के कारण नित्य है और परिणमन के कारण अनित्य है। इस प्रकार तत्त्व "नित्यानित्यात्मक" है। नित्य त्रिकाल स्थायी है। इसको सामान्य-द्रव्य-तत्त्व-वस्तु-सत्त्व आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है। अनित्य एकसमय स्थाई है। इसको विशेष-परिणाम-पर्याय-अवस्था भी कहते हैं। इस प्रकार वस्तु का सामान्य विशेष स्वरूप कथंचित् भिन्न कथंचित् अभिन्न है। दीपप्रकाश की तरह, जल कल्लोलों की तरह, मिट्टी घड़े की तरह। नित्य-अनित्य युगल का निरूपण ३३६ से ४३३ तक शंका जनु किं लित्यमनित्यं किमयोभयमनुभयञ्च तत्वं स्यात् । व्यस्तं किमथ समस्तं कमतः किमथाक्रमादेतत् ।। ३३६ ॥ शंका - (१) क्या सत् नित्य है (२) क्या सत् अनित्य है (३) क्या सत् उभय है।(४) क्या सत् अनुभय है (५)क्या सत् व्यस्त है (६) क्या सत् समस्त है (७) क्या सत् क्रमवती है (८) क्या सत् अक्रमवती है ? (उत्तर विवक्षाओं के लिये देखिये ४१४ से ४१७ तक) समाधान ३३७ से ३४० तक सत्त्व स्वपरनिहत्त्यै सर्व किल सर्वथेति पदपूर्व । रवपरोपकृतिनिमित्तं सर्वं स्यात्पदाङ्कितं तु पदम् ॥ ३३७ ॥ अर्थ - यदि उपरोक्त शब्दों के पहले सर्वथा पद जोड़ दिया जाय तो यह सत् स्व (जैनदर्शन) तथा पर (अन्यदर्शन) दोनों के नाश के लिये है। यदि उनके पहले स्यात् पद जोड़ दिया जाय तब वही सत् सब रूप होता हुआ स्व और पर दोनों का उपकारक है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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