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________________ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी भावार्थ - अतत् पक्ष मानने से क्रिया फल कारक अर्थात् मोक्षमार्ग और उसका फल बनता है और तत् पक्ष मानने - से द्रव्य-वस्तु उपादान-ध्रुव बनता है जिसके आश्रय से मोक्षमार्ग है। ये दोनों बातें तत्-अतत् की परस्पर सापेक्षता में ही बनती हैं। निर्पेक्षता में कुछ भी नहीं बनता। १. तत्-अतत् सर्वथर निर्पेक्ष का खण्डन ३३२-३३-३४ २. तत्-अतत् परस्पर सापेक्ष का समर्थन ३३२-३३-३४ अयमर्थः सदसवत्तटतदपि च विधिनिषेधरूपं स्यात् । न पुनर्निर्पक्षतया तदद्वयमपि तत्तमुभयतया ॥ ३३२ ॥ अर्थ - उपरोक्त श्लोक में तत्त्वं हि चेन्मिथः प्रेम का भाव यह है कि अस्ति और नास्ति के समान तत् और अतत् भी विधि निषेध रूप है परन्तु निरपेक्ष दृष्टि से वे दोनों तत्त्वरूप नहीं हैं किन्तु एक-दूसरे की सापेक्षता में ये दोनों तत्त्व रूप हैं। भावार्थ - जिस प्रकार अस्ति की विवक्षा में सारा का सारा पदार्थ विधि रूप पड़ता है और नास्ति की विवक्षा में वही सारा का सारा पदार्थ निषेध रूप पड़ता है उसी प्रकार तत्-अतत् में भी सारा का सारा पदार्थ विधि रूप या निषेध रूप जिसकी विवक्षा हो उस रूप पड़ता है। इतना विशेष है कि विधि, निषेध की अपेक्षा रखता है और निषेध, विधि की अपेक्षा रखता है। सर्वथा स्वतन्त्र एक भी नहीं है। सर्वथा स्वतन्त्र मानने से पदार्थ व्यवस्था ही नहीं बनती है क्योंकि पदार्थ का स्वरूप कथंचित विधिनिषेधात्मक उभय रूप है। भावार्थ - अस्ति-नास्ति युगल में स्वतन्त्र अस्ति और स्वतन्त्र नास्ति का खण्डन तथा अस्ति-नास्ति की परस्पर सापेक्षता का मण्डन जिस प्रकार नं. २८९ से ३०८ तक किया था वह सब विधि यहाँ भी जान लेना। वहाँ अस्ति-नास्ति पर थी यहाँ तत्-अतत् पर समझ लेना। सार यह है कि तत् स्वरूप के प्रदेश भिन हों, अतत् स्वरूप के प्रदेश भिन्न हों, ऐसा नहीं है किन्तु एक ही प्रदेशों में दोनों धर्म परस्पर की सापेक्षता से मित्रवत् रहते हैं । सापेक्ष सम्यक हैं निरपेक्ष मिथ्या हैं। जिसकी मुख्यता हो उसी रूप सारा पदार्थ प्रतीत होने लगता है। दूसरा धर्म उस समय गौण हो जाता है। अब इस सूत्र का भाव ग्रंथकार स्वयं अगले दो सूत्रों द्वारा खोलते हैं - रूपनिर्दशनमेतत्तटिति यदा केवलं विधिमुख्यः । अतटिति गुणोऽपृथक्त्वात्तन्मात्र निरवशेषतया ॥ ३३३ ।। अर्थ - विधि निषेध की परस्पर सापेक्षता का खुलासा इस प्रकार है कि जिस समय 'तत्' इस रूप से केवल विधि को मुख्यता से कहा जाता है उस समय अतत् अर्थात् निषेध गौण हो जाता है क्योंकि वह विधि से अपृथक् है। अभिन्न है। विधि की विवक्षा में सारी वस्तु केवल विधि रूप ही प्रतीत होती है। . अतदिति विधिर्विवक्ष्यो मुख्यः स्यात् केवल यदादेशात् ।। तदिति स्ततोगुणत्वादविवक्षितमित्यलन्मानम् ॥ ३३४॥ अर्थ- उसी प्रकार जब पर्यायार्थिक नय से केवल अतत्'यह विधि कथन विवक्षित होता है, तब वही मुख्य हो जाता है। उस समय तत् अविवक्षित होने से गौण हो जाता है। अतत् विवक्षा में वस्तु तन्मात्र नहीं समझी जाती किन्तु सारी की सारी वस्तु अतन्मात्र ही समझी जाती है। यही विधि निषेध की परस्पर सापेक्षता का मर्म है। भावार्थ - तत् विवक्षा में वस्तु सारी की सारी वही की वही प्रतीत होती है। अतत् विवक्षा में वस्तु सारी की सारी 'नई-नई' ही प्रतीत होती है यह उपरोक्त दो पद्यों का भाव है। अब यह कहते हैं कि प्रमाण में जो वस्तु तत् रूप प्रतीत होती है वही अतत् रूप प्रतीत होती है अर्थात् उभय धर्मात्मक प्रतीत होती है और अनुभय विवक्षा में न तत् रूप, न अतत् रूप, दोनों रूप नहीं किन्तु एक अखण्ड रूप प्रतीत होती है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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