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प्रथम खण्ड / द्वितीय पुस्तक
नापीष्टः संसिद्धयै परिणामो विसदृशैकपक्षात्मः ।
क्षणिकैकान्तवदसतः प्रादुर्भावात् सतो विनाशाद्वा ॥ ३२४ ॥
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अर्थ यदि विसदृश रूप एक पक्षात्मक ही परिणाम माना जाय तो भी अभीष्ट की सिद्धि नहीं होती है। केवल विसदृश पक्ष मानने में क्षणिक एकान्त की तरह असत् की उत्पत्ति और सत् का विनाश होने लगेगा।
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एतेन निरस्तोऽभूत क्लीवत्वादात्मनोऽपराधतया ।
तदतद्भावाभावापन्हववादी विबोध्यते त्वधुना ॥ ३२५ ॥
अर्थ सर्वथा सदृश और सर्वथा असदृश परिणमन पक्ष में नित्यैकान्त और अनित्यैकान्त के समान दोष आने से तत्- अतत् पक्ष का लोप करने वाला शंकाकार खण्डित हो चुका क्योंकि वह आत्मापराधी होने से स्वयं शक्तिहीन हो चुका। अतः अब वह समझाया जाता है।
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तत् अतत् का निरूपण ३२६ से ३३५ तक अस्ति से तदतद्भावनिबद्धो यः परिणामः सतः स्वभावतया ।
राजसा कित
वक्ष्ये ॥ ३२६ ॥
अर्थ- तद्भाव और अतद्भाव से निबद्ध जो वस्तु का स्वभाव से परिणमन होता है, उसका स्वरूप अब दृष्टान्त पूर्वक कहूँगा ।
जीवस्य यथा ज्ञानं परिणामः परिणमंस्तदेवेति ।
सदृशस्योदाहृतिरिति जातेरनतिक्रमत्वतो वाच्या ॥ ३२७ ॥
अर्थ- जैसे जीव का ज्ञान परिणाम, परिणमन करता हुआ सदा वही (ज्ञान रूप ही ) रहता है। ज्ञान के परिणमन में ज्ञानत्व जाति ( ज्ञान गुण ) का कभी उल्लंघन नहीं होता है। यही सदृश परिणमन ( तत् भाव ) का उदाहरण है। यदि वा तदिह ज्ञानं परिणामः परिणमन्न तदिति यतः । स्वावसरे यत्सत्वं नययोगात् ॥ ३२८ ॥
परत्र
अर्थ - अथवा वही जीव का ज्ञान परिणाम परिणमन करता हुआ वह नहीं भी रहता है, क्योंकि उसका एक समय में जो सत्त्व है, वह पर्याय दृष्टि से दूसरे समय में नहीं है। यह अतत् भाव का उदाहरण है।
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अत्रापि च संदृष्टिः सन्ति च परिणामतोऽपि कालांशाः । जातेरनतिक्रमतः सदृशत्वनिबन्धना
एव ॥ ३२९ ॥
अर्थ यहाँ पर दूसरा यह भी दृष्टान्त है कि यद्यपि काल के अंश परिणमनशील हैं तथापि स्वजाति का उल्लंघन
नहीं होने से वे पदार्थ में सदृशबुद्धि अर्थात् तत् भाव के ही उत्पादक हैं।
अपि नययोगाद्विसदृशसाधनसिद्ध्यै ते एव कालांशा |
समयः समयः समय: सोपीति बहुप्रतीतित्वात् ॥ ३३० ॥
अर्थ - अथवा नय दृष्टि से वे ही काल के अंश विसदृश बुद्धि अर्थात् अतत् भाव के उत्पादक हो जाते हैं क्योंकि उनमें एक समय, दो समय तीन समय, चार समय आदि अनेक रूप से भिन्न-भिन्न प्रतीति होती है, वही क्षणभेद प्रतीति पदार्थ भेद का कारण है।
अतदिदमिहप्रतीतौ क्रियाफलं कारकाणि हेतुरिति ।
तदिदं स्यादिह संविदि हि हेतुस्तत्त्वं हि चेन्मिथः प्रेम ॥ ३३१ ॥
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अर्थ प्रकृत में 'अतत्' अर्थात् ' यह यह नहीं है' इस प्रतीति में क्रिया, फल, कारक बन जाते हैं और 'तत्' अर्थात् 'यह वही है' इस प्रतीति में तत्त्व बन जाता है। ये दोनों बातें तभी बनती हैं जबकि तत्- अतत् दोनों परस्पर सापेक्ष माने हों। (यहाँ हेतु का अर्थ कारण अर्थात् बनना है ) ।