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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
अथ तद्यथा यथा सत्परिणममाने यदुक्तमस्तु तथा ।
भवति समीहितसिद्धिर्बिना न तदतद्विवक्षया हि यथा ॥ ३१८॥ अर्थ - यदि सत् परिणमन करता हुआ भी नित्य-अनित्य स्वरूप ही माना जाय और उसमें तत्-अतत् की विवक्षा न की जाय तो इच्छित अर्थ की सिद्धि नहीं हो सकती है। उसे ही नीचे दिखलाते हैं -
अपि परिणममान सन्जतदेतत् सर्वथाऽन्यदेवेति ।
इति पूर्वपक्षः किल विना तदेवेति दुर्निवार: स्यात् ॥ ३१९॥ अर्थ - "परिणमन करता हुआ सत् वही नहीं है जो पहले था किन्तु उससे सर्वथा भिन्न ही है" इस प्रकार का किया हुआ पूर्वपक्ष ( आशंका) बिना तत् पक्ष के स्वीकार किये दूर नहीं किया जा सकता है।
अपि परिणतं यथा सट्टीपशिखा सर्वथा तदेव यथा ।
सि पूर्वमल सुधार ल्याद्विला न तदिति नयात् ।। ३२० ॥ अर्थ - इसी प्रकार उस परिणमनशील सत में दूसरा पूर्वपक्ष ऐसा भी हो सकता है कि "यह दीपशिखा के समान सर्वथा वही है जो पहले थी।" इसका समाधान भी बिना अतत् पक्ष के स्वीकार किये नहीं हो सकता।
भावार्थ - तत् और अतत् में यह विचार किया जाता है कि यह वस्तु किसी दृष्टि से वही है और किसी दृष्टि से वह नहीं है किन्तु दूसरी है। परन्तु नित्य-अनित्य में यह विचार नहीं होता है। वहां तो केवल नित्य-अनित्य रूप से परिणमन होने का ही विचार है। वही है या दूसरा, इसका कुछ विचार नहीं होता है। यदि वस्तु में तत्-अतत् पक्ष को न माना जाय, केवल नित्य-अनित्य पक्ष को ही माना जाय तो अवश्य ही उसमें ऊपर की हुई आशंकायें आ सकती हैं। उनका समाधान बिना तत्-अतत् पक्ष के स्वीकार किये नहीं हो सकता है।
तरमादवसेयं सन्नित्यानित्यत्ववत्तटतद्वत् ।
यरमाटेकेन बिना न समीहितसिद्धिरध्यक्षात् ।। ३२१॥ अर्थ - इसलिये सत् नित्यानित्य के समान तत्-अतत् रूप है ऐसा मान लेना चाहिये क्योंकि किसी एक के माने बिना प्रत्यक्ष से इच्छित अर्थ की सिद्धि नहीं हो सकती है।
शंका ननु भवति सर्वथैव हि परिणामो विसदृशोथ सदृशो वा ।
ईहितसिद्धस्तु सतः परिणामित्वाद्यथाकथञ्चिदै ॥ ३२२ ॥ अर्थ - शंकाकार कहता है कि परिणाम चाहे सर्वधा समान हो अथवा चाहे असमान हो इसमें तत्-अतत् भाव के न मानने से कुछ भी हानि नहीं है। तुम्हारे इच्छित अर्थ की सिद्धि तो पदार्थ को कथंचित् परिणामी मानने से ही बन जायेगी।
भावार्थ - पदार्थ को कथंचित् परिणामी ही मानना चाहिये उसमें सदश अर्थात् तत् भाव अथवा असदृश अर्थात् अतत् भाव के विचार की कोई आवश्यकता नहीं है।
समाधान ३२३ से ३२५ तक लन्न यतः परिणामः सन्नपि सदृशैकपक्षतो न तथा ।
न समर्थश्चार्थकृते नित्यैकान्तादिपक्षवत् सदृशात् ।। ३२३ ।। अर्थ - उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है क्योंकि सत् में दो प्रकार का ही परिणमन होगा। सदशरूप अथवा विसदशरूप। यदि सदशरूप ही सत् में परिणमन माना जाय तो भी इष्ट अर्थ की सिद्धि नहीं होती है। जिस प्रकार नित्यैकान्त पक्ष में दोष आते है उसी प्रकार सदृश परिणाम में भी दोष आते हैं। उससे भी अभीष्ट की सिद्धि नहीं होती है।