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१०. स्वप्न-संकेत
उन दिनों आचार्य का मन अस्थिर-सा था। सामायिक में उनकी एकाग्रता प्रायः खण्डित हो जाती थी। बार-बार बाहुबली की कल्पित छवि उनके दृष्टिपथ में आती और तिरोहित हो जाती थी। इन दिनों वे षटखण्डागम सिद्धान्त का स्वाध्याय कर रहे थे और चामुण्डराय के सम्बोधन के लिए अपने स्वाध्याय का संक्षिप्त सार, प्राकृत गाथाओं में निबद्ध करते जाते थे। इस प्रकार उनका लेखन धीरे-धीरे चल रहा था।
एक दिन सिद्धान्त का चिन्तन मनन करते-करते, रात्रि के अन्तिम प्रहर में, चन्द्रगुप्त बसदि की शिला पर निद्रालीन आचाय महाराज ने एक स्वप्न देखा। स्वप्न में उन्होंने अनुभव किया कि पोदनपुर में भरत द्वारा स्थापित बाहुबली की वह प्रतिमा, माटी के एक बड़े टीले में दब गई है। चारों ओर से वृक्षों, लतागुल्मों, और कटीली झाड़ियों ने वह स्थान दुर्गम बना दिया है। हजारों विषैले कुक्कट सर्पो ने अपना आवास बनाकर, उस स्थान को मानव संचार के लिए अत्यन्त दुरूह और भयानक कर दिया है। स्वप्न में आचार्य को कुछ ऐसा भी संकेत मिला कि जैसे कोई उनसे कह रहा है___'चामुण्डराय श्रद्धावान, समर्थ और दृढ़संकल्पी श्रावक है । वह यदि संकल्प करले, तो यहीं, इसी स्थान पर, बाहुबली को प्रकट किया जा सकता है। यहीं पोदनपुर के बाहुबली की अनुकृति साकार की जा सकती है।'
संकेत पूरा होते ही स्वप्न समाप्त हो गया। निद्राहीन होकर तत्काल आचार्य महाराज चिन्तन में लीन हो गये। बाहुबली के गुणानुवाद के साथ उन्होंने प्रातःकाल की सामायिक सम्पन्न की।
संयोग की बात है, चामुण्डराय ने भी उस दिन ऐसा ही स्वप्न