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पर बाहुबली भगवान् आ खड़े होते थे । काललदेवी की विकलता किसी से छिपी नहीं थी। अब तो उनके मनःप्राण में बाहुबली का ही वास
था।
अजितादेवी से एक दिन चामुण्डराय ने यह भी सुना कि बाहुबली स्वामी के दर्शन तक के लिए मातेश्वरी ने दूध का त्याग कर दिया है। माता की इस प्रतिज्ञा ने चामुण्डराय को चिन्तित कर दिया। उन्होंने कभी अपनी माता की किसी भी आज्ञा के पालन में क्षणमात्र का भी विलम्ब नहीं किया था। एक भी ऐसा प्रसंग उनकी स्मृति में नहीं था जब माता की कोई आकांक्षा थोड़े समय भी उनके कारण अपूर्ण रही हो । आज जब वे विचारते कि मातेश्वरी के जीवन के अन्तिम समय में उनका एक शुभ संकल्प अधूरा है, उसकी पूर्ति में विलम्ब हो रहा है, तब उनका मन संक्लेशित हो उठता था ।
आचार्य नेमिचन्द्र भी काललदेवी की भक्ति भावना से प्रभावित थे । उनके मन की आकुलता से भी वे भली-भाँति परिचित थे । वे इस दिशा में चामुण्डराय के पुरुषार्थ और प्रयत्नों का पूरा मूल्यांकन कर रहे थे, परन्तु फिर भी, न जाने क्यों उनका मन इस अभियान की सफलता के प्रति आश्वस्त नहीं था । सिद्धान्त के मर्मज्ञ वे आचार्य विचार करते थे कि चौथे काल के प्रारम्भ में भरत ने जो मूर्ति स्थापित की होगी, इतने दीर्घकाल तक उसका सुरक्षित बने रहना कैसे सम्भव है। वे भली-भाँति जानते थे कि अकृत्रिम रचनाओं को छोड़कर मानवकृत सारी रचनाएँ थोड़े ही समय में कालदोष से स्वतः नष्ट हो जाती हैं । कोटि-कोटि सागर काल व्यतीत हो जाने पर भी उनका अस्तित्व बना रहे, यह कभी सम्भव ही नहीं है ।
मेरे शीर्ष की चट्टानों पर बैठकर आचार्यश्री प्रायः यही चिन्तन किया करते थे। अपनी मर्मभेदी दृष्टि से वे कभी शून्याकाश को, और कभी विन्ध्यगिरि के शिखर पर उभरे हुए ऊँचे-ऊँचे प्रस्तर -भागों को निहारते रहते थे। ऐसा लगता था कि काललदेवी की तरह उनकी आँखें भी, बाहुबली के विग्रह को, इसी परिवेश में से ही ढूँढ़ निकालना चाहती हैं ।
३८ / गोमटेश - गाथा