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पथिक ! इन पंक्तियों का छन्दों में किया हुआ भावानुवाद जो प्रातः का तुम गुनगुना रहे थे, वह भी मुझे कर्णप्रिय लगा है
नीलकमल की पाँखुरियों-सी नयनों की परिभाषा । पूर्ण चन्द्र-सी मुख की छवि, चम्पक कलिका-सी नासा ॥ उन नयनों को इन नयनों में, अपलक बाँध बिठाऊँ । गोमटेश के श्रीचरणों में बार-बार सिर नाऊँ ॥ उस विशाल विग्रह की अमल आभा, कोमल कपोलों की निर्दोष स्वच्छता और सुदीर्घ कर्ण-युगल, अब आचार्यश्री की दृष्टि में थे । बाहुबली की सशक्त और सुडौल भुजाएँ अब उनकी दृष्टि को आकर्षित कर रही थीं । सहसा स्तुति का एक छन्द और सुनाई दिया
अच्छाय सच्छं जलकंत-गंड, आबाहु- दोलंत सुकण्ण-पासं । इंद-सुण्डुज्जल बाहुदण्ड,
तं गोमटेसं पणमामि णिच्चं ॥ २ ॥
कर्ण
स्वच्छ गगन-सी देह, विमल जल से कपोल अनियारे । युगल कांधों तक दोलित मन को लगते प्यारे ॥ सुर कुंजर की सुण्ड समुज्ज्वल, बाहों की छवि ध्याऊँ । गोमटेश के श्रीचरणों में बार-बार सिर नाऊँ ॥ नेमिचन्द्राचार्य महाराज की सौन्दर्य पिपासा आज सचमुच अनन्त हो उठी थी । भगवान् की ग्रीवा की शोभा का अतृप्त अवलोन करके उनकी आँखें, बाहुबली के विशाल वक्ष की परिक्रमा करती हुई, उनके आनुपातिक, सुन्दर कटिप्रदेश पर अटक गयीं, तभी तीसरे छन्द की अमृत ध्वनि लोगों के कानों में पड़ी
सुकण्ठ-सोहा जिय-दिव्य संखं, हिमालयुद्दाम विसाल कंधं । सुपेक्खणिज्जायल - सुट्ठ मज्भं, तं गोमटेसं पणमामि णिच्चं ॥ ३ ॥ जिसकी ग्रीवा दिव्य शंख की शोभा से भी सुन्दर । हिमगिरि-सा जिसका विशाल उर, अनुकम्पा का आगर ॥ उस अनिमेष विलोकनीय छवि को जी भर कर पाऊँ । गोमटेश के श्रीचरणों में बार-बार सिर नाऊँ ॥ इस बार छन्द के तीन ही चरण उन मुनीश को बोलना पड़े । चौथा चरण ठीक समय पर बिना कहे वहाँ सहस्रों कण्ठों ने दोहरा दिया ।
भक्ति विह्वल वे आचार्य बार-बार विचारते थे—धन्य है आज की
गोमटेश - गाथा / १५५