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घड़ी जब गोमटेश की इस चिरकल्पित छवि का दर्शन हआ। वे गोमटेश जो इस विन्ध्यगिरि पर, वैराग्य के महल पर कलश की तरह विराज रहे हैं। वही गोमटेश, जो कामदेव हैं, सहज आनन्द धाम हैं। तभी उनके मुख से फूट पड़ा स्तुति का चौथा छन्द
विज्झायलग्गे पविभासमारणं, सिंहामणि सव्व-सुचेदियारणं । तिलोय-संतोलय पुण्णचंद,
तं गोमटेसं पणमामि णिच्चं ॥४॥ विन्ध्य शिखर पर दुर्द्धर तप की आभा से जो दमके। भव्यों के वैराग्य महल पर कनक-कलश-सा चमके ।। तीन लोक के ताप-निवारण चन्द्र चरण उर लाऊँ।
गोमटेश के श्रीचरणों में बार-बार सिर नाऊँ।। अब उन भक्त-शिरोमणि का ध्यान, आराध्य के मनोहर शरीर से लिपटी हई माधवी लताओं पर था। वे मन ही मन उनके त्रिलोक पूजित महान् ऐश्वर्य की कल्पना कर रहे थे। धाराप्रवाह उनके श्रीमुख से, निष्प्रयास जो शब्द निसृत हो रहे थे, ऐसा लगता था वे अपने आप ही छन्दों में ढलते चले जा रहे हैं
लयासमवंत महासरीरं, भव्वावलीलद्ध सुकप्परुक्खं । देविवदच्चिय पायपोम्म,
तं गोमटेसं पणमामि णिच्चं ॥५॥ मदु माधवी लता बाहों तक जिसके तन पर छायी । भव्यों को जिसका सूमरण सुर तरु समान फलदायी। देव वृन्द चचित उन चरणों की रज माथ लगाऊँ ।
गोमटेश के श्रीचरण में बार-बार सिर नाऊँ॥ __ महाराज की दृष्टि अब भगवान् के चरणों में उद्भूत कुक्कुट सर्पो की बामियों तक पहुँच गयी थी। भयानक विषधरों से घिरे होने पर भी इतने निर्भय, इतने निरपेक्ष, ऐसे अडिग और ऐसे अविचल, यह स्तुति का छठा छन्द था
दियंबरो जो ण च भीइ-जुत्तो, ण चांबरे सत्तमणो विसुद्धो। सप्पादि जंतुप्फुसदो ण कंपो, तं गोमटेसं पणमामि णिच्चं ॥६॥
१५६ / गोमटेश-गाथा