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३६. तं गोमटेसं पणमामि णिच्चं
नेमिचन्द्राचार्य महाराज अत्यन्त भाव-विभोर होकर भगवान् की वीतराग छवि का पान कर रहे थे। उनके भक्त मन की अनुभूति, व्यक्त होने के लिए छटपटा रही थी। आचार्य महाराज को उसे व्यक्त करने योग्य शब्द ढूँढ़े नहीं मिल रहे थे। आज प्रथम बार ऐसा हुआ, जब भावों के साथ दौड़ने में उनकी भाषा असहाय सिद्ध हो गयी। अन्तर की अनुभति को अभिव्यक्ति देने में आज उनकी शब्द सामर्थ्य पंगु हो गयी थी। भावना का अतिरेक उनके सम्हाले सम्हल नहीं रहा था। आचार्य तो मौन में ही सन्तुष्ट रह लेते, परन्तु उनके भीतर का कवि मुखर हो उठना चाहता था। अपने भीतर वे एक ऐसे आवेग का अनुभव कर रहे थे, जिसे अधिक देर तक रोक सकना सम्भव ही नहीं था। वे मन ही मन उस महान् तपस्वी की साधना को प्रणाम करते हुए, सराहना कर रहे थे गोमट की, चामुण्डराय की, जिसके अथक पुरुषार्थ और अटूट लगन से ऐसी लोकोत्तर मंगल मूर्ति यहाँ अस्तिव में आयी । 'गोमटेश्वर' नामोच्चार के साथ उन्होंने सहसा ही चामुण्डराय की भक्ति भावना को अभी-अभी अमरता का वरदान तो दे ही दिया था।
आचार्य की निनिमेष दृष्टि, कभी भगवान् के सुन्दर नेत्रों की छवि का पान करती, कभी उनके मूखमण्डल को ही निहारती, और कभी नासा पर टिकती थी। तभी अनायास ही उनके भाव शिशु, शब्दों का आवरण धारण कर, वातावरण में तैर उठे
विस-कंदो दलारणयारं, सुलोयरणं चंद-समाण-तुण्डं । घोणाजियं चम्पय-पुप्फसोहं, तं गोमटेसं पणमामि णिच्चं ॥१॥