________________
३१. हृदय-मन्थन के आठ पहर
आज रूपकार विक्षिप्त-सा हो उठा था। जिस प्रकार उसकी संकल्पशक्ति डगमगा गयी थी, उसकी एकाग्रता और उसकी निद्रा उससे छिन गयी थी, उस वंचना से वह भीतर तक काँप उठा था। उसका कोमल कलाकार मन, आतंकित हो उठा था। उसे ऐसा लगता था जैसे उसका सब कुछ खो गया है । स्वर्ण-संग्रह के लालच में वह दो ही दिन में एकदम कंगाल हो गया है।
जिनदेवन ने कल उसे असमय नीचे उतरते, पाषाण बटोरते तथा अकारण ही निवास की ओर जाते देख लिया था। सरस्वती और पण्डिताचार्य के साथ उसने रूपकार की इस विसंगति पर गम्भीरता से विचारविमर्श किया। कार्य के प्रति उसकी अवहेलना, और उसके अनमनेपन की सूचना, पण्डिताचार्य ने महामात्य को भी उसी दिन दे दी।
चामुण्डराय इस अप्रिय समाचार से व्यग्र हो उठे। वे देखते थे कि यद्यपि विन्ध्य के उस शिखर की आकृति परिवर्तित हो गयी है, परन्तु प्रतिमा के तक्षण का कार्य तो अभी प्रारम्भ ही हुआ है। उन्हें लगा कि सूक्ष्म कार्य में स्वल्प पाषाण झरेगा, अत: अब रूपकार को थोड़ा ही स्वर्ण प्राप्त होगा, यही सोचकर उसका मन विकल हो गया है। 'कठिन काम के लिए अल्प पारिश्रमिक मिलेगा' अपने अनुबन्ध की यह विसंगति उनकी समझ में आ गयी। उन्होंने तत्काल निश्चय कर लिया कि आज से रूपकार को मुँहमाँगा ही पारिश्रमिक देंगे। यदि उसने स्वतः माँगने में संकोच किया, तो उपलब्ध पाषाण का दो भार स्वर्ण देने की अभिस्तावना वे स्वयं उससे करेंगे। रूपकार प्रसन्न और उत्साहित रहेगा। तभी यह कार्य सम्पन्न हो सकेगा।
अम्मा परसों ही बेटे की अनमनस्कता देखकर चिन्तित थीं। उन्होंने