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कल रात निद्रा का नाटक करके, बेटे का स्वर्ण-मोह अपनी आँखों से देख लिया था। दो दिन में भोजन और निद्रा के बिना उसकी जो दशा हो गई थी, वह भी उन्हें पीड़ित कर रही थी । प्रातः जब रूपकार उनके चरणस्पर्श करने आया, तभी उन्होंने उसे टोक दिया
‘ऐसा अनमना क्यों है रे ? क्या तुझे कुछ विकार हुआ है ? तेरे नेत्र तो देख, कैसे अंगार से लाल हो रहे हैं ?"
'कुछ तो नहीं अम्मा ? लगता है परिश्रम की क्लान्ति है । अल्पकाल में स्वतः ठीक हो जाऊँगा ।'
उत्तर में यथार्थ से भागने का पूरा पुरुषार्थ किया गया था ।
अम्मा को अवसर जानकर, मन के भीतर का ममता भरा आक्रोश अविलम्ब प्रकट कर देना आवश्यक लगा
'मैं तेरी जननी हूँ बेटे ! नौ माह तक मैंने अपनी कोख में ढोया है तुझे । तेरे तन-मन को मैं जितना जानती समझती हूँ, उतना अपने आपको तू स्वयं क्या कभी समझ पायेगा ? देखती हूँ तू लोभ के दुश्चक्र में फँस गया है। अधिक पारिश्रमक की उपलब्धि तेरी कला - साधना को भंग कर रही है । यह स्वर्ण, जो आज तेरे मनप्राण में बस गया है, इसी की ममता ने तीन दिन से तेरे सर्जनहार हाथों को जड़ कर दिया है । यह तो तेरा आत्मघात है बेटा ! '
कहते-कहते अम्मा का पीड़ित मातृत्व उनके नेत्रों से छलक उए । उत्तरीय से अपनी आँखें पोंछकर उन्होंने अपनी पीड़ा को और स्वर दिये
'यह तेरा प्रमाद नहीं, मेरा ही अभाग है रे ! देखती हूँ, एक वह भाग्यवान माँ है जिसका बेटा, उसकी इच्छापूर्ति के लिए क्या कुछ त्याग नहीं कर रहा ? अपनी अम्मा की एक इच्छा की पूर्ति के लिए महामात्य अपना कुबेर का-सा कोष, उदारता से लुटाते जा रहे हैं। इधर एक मैं अभागी माँ हूँ, जिसका बेटा उस इच्छापूर्ति की क्षमता रखते हुए भी, स्वर्ण की चकाचौंध में अन्धा हुआ जा रहा है ।'
'तू क्या सोचता है बेटा ! बाहुबली की प्रतिमा निष्पन्न होने पर काललदेवी को जितनी प्रसन्नता होगी, मुझे क्या उससे कुछ कम होगी ? उन्हें उस दिन अपने बेटे पर जितना गर्व होगा, मुझे अपने बेटे पर क्या उससे कम होगा ? पर तू मेरी भावना का आदर करे, ऐसा मेरा भाग्य ही कहाँ है ?”
'मुझसे अपराध हुआ अम्मा !' किसी प्रकार इतने ही शब्द रूपकार के मुख से निकल पाये। जननी की गोद में सिर रखकर वह प्रताड़ना १३२ / गोमटेश - गाथा