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अन्तर्धान हो गये हैं। उस ऊँचे स्वर्णगिरि की संकीर्ण चोटी पर खड़े हुए उसने झाँक-झाँक कई बार विन्ध्यगिरि को देखा, पर बाहुबली की वह अर्द्धनिर्मित प्रतिमा वहाँ उसे दिखाई नहीं दी। उसी प्रयास में उसका संतुलन बिगड़ गया और वह चोटी पर से नीचे की ओर गिरने लगा। तभी उसकी आँख खुल गयी।
जागते ही रुपकार का मन अपने उस अशभ स्वप्न पर ग्लानि और आशंका से भर उठा। वह तत्काल भागा हुआ मेरी शरण में आया। वहाँ नीचे, वह जो नुकीली ऊँची चट्टान तुम देख रहे हो न, उसी पर खड़े होकर उसने दोड्डवेट्ट की ओर आशंका भरी दृष्टि डाली। आज शुक्लपक्ष की द्वादशी थी। उज्ज्वल ज्योत्स्ना के प्रकाश में उसने आश्वस्त होकर देखा कि उसके अनगड़ बाहुबली यथास्थान विराजते थे। उसका जाना पहिचाना काष्ठ फलकों का मंच, और मंच के ऊपर झाँकती हुई बाहुबली की प्रतिमा का वह अर्द्धनिमित ऊर्ध्व भाग, उस धवल ज्योत्स्ना में यहाँ से एकदम स्पष्ट दिखाई दे रहा था। __अपनी ही मूर्खता पर जोर से हँसता हुआ रूपकार, अपनी कुटिया की ओर लौट गया। परन्तु प्रयत्न करने पर भी उस रात फिर वह सो नहीं सका । उसे बार-बार स्मरण आते रहे प्रवचन में सुने हुए महामात्य के शब्द___ 'जो कषाय के शिखर पर चढ़ जाते हैं, वे केवल अपने ही पाने और खोने के लेखे में खो जाते हैं। उनकी दृष्टि अपनी ही जय-पराजय तक सीमित होकर रह जाती है। नीति-अनीति, अपना-पराया, कुछ भी फिर उन्हें दिखाई नहीं देता। उनका संतुलन किसी न किसी क्षण बिगड़ता ही है। उनका पतन अवश्यंभावी है । पराजय ही उनकी नियति है।'
१३० / गोमटेश-गाथा