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करना होगा, यह किसी भी जननी को बताने की आवश्यकता नहीं । स्नेह से सिर पर हाथ फेरेगी और बालक को उसकी महिमा का स्मरण दिलायेगी
'तू तो राजा बेटा है, राजा बेटा । तू तो गिरा ही नहीं । वह तो घोड़ा कूदा था। राजा बेटा क्या कभी गिरता है ? क्या कभी रोता है ? चल, दौड़कर आगे चल ।'
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यही चारों अनुयोगों की कथन -पद्धति है देवी । संसार - भ्रमण में कर्मोदय की ठोकर से पीड़ित भव्य प्राणी के लिए, जिनवाणी माता की करुणा धारा ही इन चार प्रणालियों में बहती है । जन्म-मरण, और सुखदुख पीड़ा से, और उस पीड़ा के आतंक से रहित करके, प्राणियों को को संसार में निरापद मार्ग दिखाना, इन चारों अनुयोगों का अभिप्राय है । जीव को उसकी निज शक्ति का बोध करा देना ही जिनवाणी का प्रसाद है ।
'दीदी गिर गयी थी, पर रोयी नहीं, दौड़कर घर पहुँच गयी थी ।' यही तो कहा है प्रथमानुयोग में । असंख्य पात्रों के जीवन-वृत्त यही तो बताते हैं कि जब-जब कर्मों ने उन्हें शुभ-अशुभ परिस्थितियाँ प्रदान कीं, तब वे संक्लेशवश अधीर होकर रोये बिसूरे नहीं । अहंकारवश उन्मत्त भी नहीं हुए । मोक्ष के मार्ग पर ही चलते रहे ।
'दीदी का मुँह चिढ़ाता है, उसे पीटता है, तभी चोट लगती है ।' यही अभिप्राय है, करुणानुयोग का । जीव, भला-बुरा जैसा भी व्यवहार, दूसरे जीवों के प्रति करेगा, कालान्तर में उसे वैसा ही भला-बुरा फल भोगना पड़ेगा | जैनदर्शन की कर्म - व्यवस्था का इतना ही तो सार है ।
'स्वयं देखकर चलता नहीं, गिरने पर रोता है । सावधानी से चला कर फिर चोट नहीं लगेगी ।' यही तो चरणानुयोग का उपदेश है । यत्नाचारपूर्वक अपने जीवन का निर्वाह करना, पापाचरण से दूर रहना, इतना ही तो भविष्य के दुःखों से बचने का उपाय है ।
'तू तो गिरा ही नहीं, वह तो घोड़ा कूदा था । राजा बेटा कभी गिरता ही नहीं ।' यह द्रव्यानुयोग की भाषा है । जीव तो ज्ञानमय और अजर अमर ही है । वह न कभी जन्मता है, न मरता है । न बँधता है, न छूटता है । न गिरता है, न उठता है । ये सारी अवस्थाएँ तो शरीर रूपी घोड़े की होती हैं ।
सो देवी ! ऐसी है जिनवाणी के चार अनुयोगों की व्यवस्था । जिस अनुयोग में, मोक्षगामी महापुरुषों की जीवन- घटनाएँ संग्रहीत हैं, उसे प्रथमानुयोग कहते हैं । सर्वप्रथम उसका अध्ययन करने से अपने भीतर
१२२ / गोमटेश - गाथा