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२८, फूल की चार पाँखुरियाँ : चार अनुयोग
जैन विचार पद्धति के सम्बन्ध में सरस्वती की जिज्ञासाएँ अपार थीं। वह प्रायः रोज अपने एक प्रश्न का निराकरण आचार्य महाराज से कर ही लेती थी। 'शास्त्रों के चार अनुयोग-भेद करने का अभिप्रायः क्या है ? उनके कथन में क्या अन्तर है ? आज आचार्यश्री के समक्ष उसका यही प्रश्न था। जिज्ञासा उठाती हुई सरस्वती को ही उदाहरण बनाकर आचार्यश्री ने प्रश्न का समाधान किया
यह जो तेरा बालक है, देवी ! यदि यह मार्ग में ठोकर लगने से पीडित होकर रुदन करने लगे, तब इसका क्या उपचार करेगी तू ? वही तो, कि इसे स्नेह से अंक में लेगी और संबोधन करेगी
'इतनी-सी पीड़ा में रोता है। देख तेरी दीदी गिर गयी थी, कितना रक्त बहा था, वह क्या ऐसे रोयी थी? दौड़कर घर पहुँच गयी थी वह
तो।'
__ अब यदि यह बालक पीड़ा को नहीं भूल पाता तब तेरा दूसरा संबोधन होगा
'बहत उपद्रव करता है न, इसीलिए तुझे पीड़ा होती है। कैसे मँह चिढ़ाता है दीदी का, कैसे पीटता है उसे, तभी तो तुझे चोट लगती है। चुप हो जा, आगे उसका उपद्रव नहीं करना, फिर कभी नहीं गिरेगा।'
और इस पर भी बालक यदि समाधान नहीं पाता, उसका रुदन नहीं रुकता, तब बदल ही जायेगी तेरे संबोधन की भाषा
'ऐसा स्वच्छ पथ पड़ा है, दण्टि भी तेरे पास है, स्वयं देखकर तो चलता नहीं, गिरने पर रोता है। आगे सावधानी से चला कर, फिर कभी चोट नहीं लगेगी।'
यह संबोधन भी यदि बालक को पूरा समाधान न दे पाये, तब क्या