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विराजमान गहन गम्भीरता अवश्य कभी-कभी रूपकार को खटक जाती थी। वह अपनी कृति में एक भोली स्मित रेखा का अंकन करना चाहता था । बाहुबली के आन्तरिक ऐश्वर्य का संकेत एक निर्दोष मुस्कान के द्वारा उनके मुख पर अंकित कर देना उसका अभीष्ट था, अतः रूपकार एक तीसरे प्रादर्श की भी शोध करता रहा ।
सरस्वती जब भी पर्वत पर आती, प्रायः सौरभ भी उसके साथ होता था। छह-सात वर्ष का वह बालक जैसा सुन्दर था वैसा ही चपल भी था । पण्डिताचार्य से और अपने पिता से पूछने के लिए उसके मन में अनन्त जिज्ञासाएँ थीं । रूपकार के प्रति बालक का संकोच धीरे-धीरे समाप्त होता जाता था ।
एक दिन किसी तृप्ति की अनुभूति में, जब सौरभ का मुख एक अनोखे आनन्द से अभिभूत था, उसकी मुस्कान पर रूपकार की दृष्टि पड़ी । सहसा रूपकार को लगा कि आन्तरिक आनन्द की यही वह अभिव्यक्ति थी, जिसे वह कई दिनों से ढूंढ़ रहा था । यही वह भोली निर्दोष स्मित- रेखा थी, जो प्रतिमा के मुखमण्डल पर वह अंकित करना चाहता था। सौरभ की इस सरल मुस्कान को हृदयंगम करके रूपकार आश्वस्त हुआ। उसने निर्णय किया कि बाहुबली का चरित्र और उनकी चिन्तनधारा का ज्ञान, उस प्रतिमा के लिए उसके अन्तरंग प्रेरणा-स्रोत होंगे। आचार्यश्री की स्थिर ध्यानस्थ मुद्रा, जिनचन्द्र महाराज का तरुणाई भरा मुखमण्डल और सौरभ की निर्दोष मुस्कान, बाह्य प्रादर्श के रूप में उसे प्रेरणा देंगे ।
उसी क्षण से रूपकार और सौरभ की मित्रता, घनिष्ट होने लगी । अब वह प्रायः अपने इस बालमित्र के लिए कभी वन- पुष्पों की कोई डाल, कभी पुष्पों और फलों का कोई गुच्छक, कभी पाषाण का कोई विचित्राकृति खण्ड या कोई अन्य खिलौना अपने पास रखता था । दोनों में घण्टों घुट-घुटकर बातें होतीं । प्रमोद के क्षणों में प्रायः रूपकार की आँखें सौरभ के मुख की मनोहारी मुस्कान का पान करती रहतीं । कभी-कभी उस मुस्कान की एक झलक देखने के लिए रूपकार को घड़ी दो घड़ी तक अनेक प्रकार से उसका मन बहलाना पड़ता था । वह तरह-तरह से उस बालक
अभ्यर्थना करके, किसी न किसी प्रकार, उसके नेत्रों में अनोखी चमक, और होठों पर वह मनोहर मुस्कान प्रतिदिन एकाध बार देख ही लेता था ।
वैसे तो पूरे कटक के भोजन की व्यवस्था का भार सरस्वती पर ही था, पर रूपकार के प्रति उसका व्यवहार अत्यन्त स्नेहपूर्ण और अपनत्व
गोमटेश - गाथा / ११६