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२७. प्रादर्श की परिकल्पना
नेमिचन्द्राचार्य महाराज मध्याह्न की सामायिक प्रायः विन्ध्यगिरि पर ही करते थे । एकान्त स्थान में किसी भी चट्टान पर वे कायोत्सर्ग आसन से चार-पाँच घड़ी तक ध्यानस्थ रहते थे । रूपकार प्रायः उनकी स्थिर मुद्रा का अवलोकन करता हुआ कल्पना करता कि ऐसी ही ध्यानमग्न, एकाग्र स्थिरता उसके अंकन में रूपायित होना चाहिए ।
अनेक बार आचार्यश्री की ध्यानस्थ मुद्रा का अवलोकन करने के उपरान्त, एक दिन कुछ निकट से रूपकार ने उनके मुख का निरीक्षण किया । उस दिन कलाकार को लगा कि प्रतिमा में कामदेव बाहुबली के सौन्दर्य की झलक लाने के लिए, उसे कोई दूसरा ही प्रादर्श ढूँढ़ना होगा । दीर्घ तपश्चरण के कारण कृश और जरा-जर्जरित आचार्यश्री के मुख ने रूपकार को निराश ही किया । महाराज की तपःपूत निर्दोष मुख - मुद्रा प्रभावक तो थी परन्तु बाहुबली के शरीर के अतुल बल का प्रतिनिधित्व उस छवि के आधार पर सम्भव नहीं था ।
आचार्यश्री के संघ में ही अन्य साधुओं के मुखमण्डल का निरीक्षण अब इस दृष्टि से रूपकार ने किया । सहसा जिनचन्द्र महाराज पर उसकी दृष्टि अटक गयी | जिनचन्द्र अल्प वय से ही महाराज के समीप रहे थे । उनकी शिक्षा और दीक्षा आचार्य महाराज के ही द्वारा सम्पन्न हुई थी । तरुण वय में उस बाल- ब्रह्मचारी यति का दमकता हुआ अरुणाभ मुखमण्डल, कलाकार को अपनी कल्पना के बहुत निकट लगा । पर्वत पर आते जाते, तथा ध्यान करते हुए उसने अनेक बार, उनकी मुख - छवि का अध्ययन किया और उसी सौम्य सुन्दर छवि को, अपनी कृति में उतारने का संकल्प उसे प्रिय लगा ।
जिनचन्द्रदेव की आकृति का अध्ययन करते समय उनके मुख पर