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दीक्षा लेते ही बाहबली ध्यान लगाकर जहाँ खड़े हो गये थे, बरस बीत जाने पर आज भी वे वहीं, वैसे ही ध्यानस्थ खड़े थे। उन महाकाय योगी का समाधिस्थ शरीर, पाषाण की तरह संवेदनहीन लगता था। उनके चरणों में कुक्कट सों की बाँबियाँ बन गयीं थीं। कितने ही सर्प घुटनों तक उन्हें घेरे थे। शरीर पर अनेक जन्तु रेंगते दिखाई दे रहे थे। दो माधवी लता उनकी देह के सहारे चढ़ती चली गयी थीं। लता के वन्तों ने योगी की जंघाओं और भुजाओं को गढ़ कुंडलियों में लपेट लिया था। आधे मंदे हुए उनके नयनों की नासाग्र दृष्टि अपने ही आनन्द में खोई-सी लगती थी।
पूरे परिवेश में अहिंसा और प्रेम का साम्राज्य था। मृग और मगराज, नाग और मयूर, वृषभ और व्याघ्र सभी वहाँ एकसाथ विचरते थे। उन अनुपम तपस्वी का दर्शन करके सबके मनों में श्रद्धा, भक्ति और प्रेम की निर्झरिणी फूट पड़ी। राजमुकुट उन चरणों में रखकर भरत उन महायोगी की स्तुति करने लगे। बाहुबली का जयकार करते हुए परिकर के सभी जन उनकी सेवा में लग गये। माताओं ने शरीर पर से जीव-जन्तुओं को हटाया, सहोदराओं ने लताओं के वृन्त खींचखींचकर उन्हें वनस्पति के बन्धन से मुक्त किया, जयमंजरी ने बाँबी की मत्तिका हटाकर चरणों का प्रक्षाल किया। पुत्रों ने वन की भूमि को स्वच्छ और कंटकरहित किया। प्रजाजनों ने उनकी वन्दना का उत्सव मना लिया।
स्तुति समाप्त करके भरत ने अपना मस्तक बाहुबली के चरणों पर रख दिया। तभी वह शुभ घड़ो प्रकट हो गयी। योगेश की समाधि सम्पन्न हुई। शरीर में किंचित्-सा स्पन्दन हुआ, नेत्रों के पलक थोड़े से खुले । हर्ष की एक लहर सबके मन को छू गयी। भरत मुखर हो उठे___ 'तुम्हारा संकल्प धन्य है प्रभु ! सचमुच अधूरी आकांक्षाओं से अतृप्त मन को मोड़ना वैराग्य नहीं है। कामना-पूर्ति के समस्त साधनों की उपलब्धि के बीच, उनकी नश्वरता को अनुभव कर लेना, मन को उनसे असंपृक्त कर लेना ही वैराग्य है।' ___ 'दर्शन से तन मन सफल हुआ स्वामिन् ! आज मेरे समस्त क्लेश मिथ्या हो गये। मोह से बड़ा अपराध संसार में कुछ नहीं है। यहाँ कोई किसी का अपराधी नहीं, उस मोहचक्र से प्रेरित हम सब, अपने ही अपराधी हैं। कोई किसी को क्षमा भी क्या करेगा ? अपने आपको क्षमा कर देना ही उत्तम क्षमा है । आपने वह क्षमा प्राप्त कर ली है मुनिनाथ ! आपकी जय हो।'
गोमटेश-गाथा | १०७