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करने का संकल्प किया। संगीत सभा जब तक समाप्त नहीं हुई, कतव्यनिर्वाह के लिए भरत उस सभा में उपस्थित रहे।
भगवान् का समवसरण दूर नहीं था। पूरे परिकर के साथ वहाँ पहुँचकर सम्राट ने भाव सहित भगवान् की अर्चना और भक्ति की। धर्मसभा में बैठे हुए उनके मन में वहाँ भी बाहुबली का स्मरण हुआ। आज भरत अपनी आकुलता दबा नहीं पाये। अपने मन की अधीरता उन्होंने भगवान् के सामने व्यक्त कर दी
'इतना समय हो गया नाथ ! बाहुबली की समाधि एकबार भी नहीं खुली। आहार, निद्रा, विश्राम सब कुछ छोड़कर यह कैसी कठोर साधना कर रहे हैं हमारे अनुज ? कब पूर्ण होगी उनकी आराधना?' ।
त्रिकालदर्शी, सर्वज्ञ ऋषभदेव की अनक्षरी दिव्य ध्वनि में भरत की जिज्ञासा का समाधान प्रस्तुत हुआ
_ 'बाहुबली की साधना लोकोत्तर है भरत। उन्होंने बारह मास का 'प्रतिमा योग' धारण किया है। उनकी समाधि खुलने में अभी बारह दिन शेष हैं। इस ध्यानकाल में उन्होंने आत्मचिन्तन किया है, सत्य का शोधन किया है। आत्मा के उत्कर्ष की भूमिका प्राप्त कर ली है। किन्तु कभी-कभी तुम्हारे मनस्ताप की स्मृति उनकी एकाग्रता को खण्डित कर जाती है। मैं भरत के क्लेश का कारण बना' आज भी यह टीस रह रहकर उनके मन में कसक जाती है। इसी पर चिन्ता के कारण बाहुबली की साधना-बेलि में कैवल्य का पुष्प अभी तक लग नहीं सका।' __ सुनकर भरत अवाक रह गये—'राग के बन्धन कितने दीर्घजीवी हैं, कितने शक्तिशाली हैं ! मैं सोचता हूँ यह भरत उनका अपराधी है। वे विचारते हैं कि वे मेरे क्लेश का कारण बने हैं। क्या अपने आपको एक दूसरे का अपराधी मानकर हम स्वयं अब अपना ही अपराध नहीं कर रहे हैं ? उन्होंने संकल्प किया---'बारहवें दिन बाहुबली के चरणों में बैठना है। उनकी समाधि खुलते ही अपना हृदय भी खोलकर रख देना है जिन्होंने मेरे गुरुतर अपराध क्षमा कर दिये, वे क्या अपने आपको क्षमा नहीं करेंगे? अवश्य करेंगे। उसी क्षण करेंगे।'
ब्राह्मी और सुन्दरी उसी धर्मसभा में विराजमान थीं। योगी चक्रवर्ती भ्राता के दर्शन की अभिलाषा से वे भी भरत के साथ अयोध्या लौटीं। राजमाता यशस्वती और सुनन्दा, महारानी सुभद्रा, पोदनपुर की राजमाता, ब्राह्मी और सुन्दरी सबको साथ लेकर भरत बारहवें दिन बाहुबली के तपोवन में उपस्थिति हुए। अयोध्या और पोदनपुर के शतशः नागरिक इस यात्रा में सम्मिलित थे।
१०६ / गोमटेश-गाथा