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निरुत्सव नगर प्रवेश किया था। किसी प्रकार का समारोह, राग-रंग उस समय नहीं हो सका था, इसलिए प्रजाजनों ने समारोहपूर्वक वर्षगाँठ मनाने की अभिलाषा प्रकट की थी। प्रजा का उत्साह देखकर भरत ने बाधा नहीं दी परन्तु मन उनका उदास था। तीन चार दिन से वे कुछ अधिक गम्भीर थे। ... - महोत्सव में अभी दो सप्ताह का समय था परन्तु कलाकारों, नर्तकोंगायकों के यूथ अयोध्या के अतिथिगृहों में पहुँचना प्रारम्भ हो गये थे। अमात्यों ने विचार किया, राजसभा में संगीत का आयोजन किया जाय। आगन्तुक कलाकारों में अनेक प्रसिद्ध संगीतज्ञ और वीणावादक हैं। उनकी कला से सम्भव है कला मर्मज्ञ सम्राट की उदासी कुछ कम हो। महाराज यदि ऐसे ही उदासीन बने रहे तो नगर में महोत्सव की संयोजना व्यर्थ हो जायेगी।
दूसरे ही दिन राजसभा में उन सिद्धहस्त कलाकारों की संगीत सभा बुलाई गयी । आयोजन का प्रयोजन भरत से छिपा नहीं रहा । अमात्यों के आग्रह पर वे उस सभा में उपस्थिति भी रहे परन्तु चित्त उनका कहीं
और था। अनेक विख्यात कलाकारों ने गायन प्रस्तुत किया। वीणा पर स्वरों की सुन्दरतम अवतारणा की, संगीत के सूक्ष्मतम अभिप्रायों को लयताल में बाँध दिया, परन्तु भरत की खिन्नता तनिक भी कम होती दिखाई नहीं दी। जैसे-जैसे वे कलाकार अपने कौशल का प्रदर्शन करते, वैसे ही वैसे भरत अपने भीतर विचारों की समाधि में डूबते चले जाते थे। वे विचारते थे---
'संगीत की स्वर लहरी से अवसाद का कोहरा छट जाता है, दुख की परतें छिन्न-भिन्न हो जाती हैं। कितने दयालु हैं हमारे सभासद,कितने उदार हैं ये कलाकार, जो हमारा दुख हरने के लिए इतना परिश्रम कर रहे हैं। किन्तु कितना गहरा है हमारा दुख, जो इतने प्रयत्नों से भी घटता नहीं है। कितना घना है हमारा अवसाद, जो स्वर की रश्मियों से भी कटता नहीं है।'
उन्हें स्मरण आ रहा था प्रात काल उपवन के बाहर देखा वह दृश्य जहाँ वृक्ष के नीचे चीथड़ों में लिपटा एक अधनंगा-सा भिखारी तन्तुवाद्य बजाता हुआ, अपने ही स्वरों से आनन्दित मगन होकर नाच रहा था। राजसभा में बैठे हुए सम्राट को पथ के उस भिखारी के भाग्य पर ईष हो रही थी जिसके दुख के उपचार के लिए एक इकतारा ही पर्याप्त था। अपना दुख उन्हें उस विपन्न के दुख से सहस्रगुना अधिक लग रहा था। भरत ने दूसरे ही दिन समवसरण में जाकर भगवान् ऋषभदेव के दर्शन
गोमटेश-गाथा | १०५