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स्थिति का भान करके वे आगे बढ़े। अनुज-वधु के भाग्य की सराहना करते हुए उन्होंने उसे सान्त्वना दो। महाबली के सिर पर हाथ फेरकर अपना स्नेह जताया। कुछ समय के लिए अयोध्या चलने का उनसे अनुरोध किया। पोदनपुर के अमात्यों को राज्य की व्यवस्था के लिए आदेश दिये। सैनिकों को उपहार आदि देकर सभी को वापस लौटाया। अश्वारोहियों के साथ महामन्त्री को बाहुबली का वृत्तान्त लेते हुए अयोध्या पहुँचने का निर्देश दिया। फिर अपने सैन्यदल के साथ, खिन्न चित्त वे चक्रवर्ती, गुमसुम और चुपचाप अयोध्या की ओर लौट चले।
लौटती सेना ने अयोध्या में प्रवेश किया। बिना रुके चक्ररत्न आयुधशाला में पहुँच गया। अयोध्या का राजकाज सामान्य गति से संचालित होने लगा, किन्तु भरत का मन अपनी खोई शान्ति प्राप्त नहीं कर सका। बाहुबली की पीड़ा और अपने नीतिविरुद्ध आचरण की ग्लानि उन्हें आठों याम कुरेदती रहती थी। अपने ही अपराध के पश्चाताप में वे प्रतिसमय डूबे रहते थे। ____ मुनिदीक्षा लेकर बाहुबली कठोर तपश्चरण में लीन हो गये थे। सुदूर पर्वत के शिखर पर पाषाण-प्रतिमा की तरह स्थिर, वे नग्नदिगम्बर, मौन, एकाकी, ध्यानस्थ खड़े थे। दिन और रात, सप्ताह और मास, व्यतीत होते जा रहे थे, किन्तु एक बार भी उनकी ध्यान समाधि टूटी नहीं थी। भरत प्रायः उनके दर्शन के लिए जाते, चरणों की वन्दना करते, दो-चार घड़ी तक उनके समक्ष बैठे रहते, परन्तु निराश लौट आते थे। बाहुबली की एक चितवन के लिए, उनके मुख के दो बोल सुनने के लिए, अपने हाथ से उन्हें दो अंजुरी आहार देने के लिए भरत तरस रहे थे। एकान्त के क्षणों में प्रायः उनके मुख से निकल जाता'इतनी क्षमा कैसे प्रकट कर ली भ्रात? ऐसी समता कहाँ से बटोर लाये बाहुबली? यह एकाग्रता कैसे पायी योगिराज ?' भरत का सारा चिन्तन बाहुबलीमय हो रहा था।
पूरी तन्मयता के साथ भरत साम्राज्य के संचालन का प्रयत्न करते थे। प्रमाद रहित होकर प्रजा के प्रति अपने कर्तव्यों की परिपालना करते थे। परन्तु इस सबमें कोई रस, कोई उत्साह, कोई आनन्द, उनके लिए शेष नहीं था। उनका अधिकांश काल चिन्तन में ही बीतता था। वे मितभाषी हो गये थे। शुभ-अशुभ घटनाओं के प्रति उनका दृष्टिकोण परिवर्तित हो गया था। उनकी चिन्ताधारा अन्तर्मुखी हो गयी थी।
अयोध्या में दिग्विजय की वर्षगाँठ मनाने की आयोजना हो रही थी। एक वर्ष पूर्व पोदनपुर की सीमा से लौटकर, अयोध्या की सेना ने
१०४ / गोमटेश-गाथा